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तेासीमो संधि
१६७ जिसमें साँप, पक्षी, मृग, भेड़िये, सियार और सुअर थे, जिसमें जीवित मनुष्यको फाड़ दिया जाता और जिसमें यम और विधाता भी अपने प्राणों को छोड़ देते । जिसने बिना पूछे मुझे वनमें छुड़वा दिया, अब उनके विमान भेजनेका क्या मतलब ? चुगलखोरों के कहने पर उन्होंने मुझे जो आघात पहुँचाया है, उसकी जलन, सैकड़ो मेवों की वर्षासे भी शान्त नहीं हो सकती।। ५-८॥
[७] रामने मेरे साथ जो कुछ किया, उसके लिए कोई कारण नहीं था, फिर आप लोगों का यदि अनुरोध है तो मैं चलती हूँ।" यह कहकर, जयसे मुन्दर सीतादेवी जब चली तो लगा कि अपने चरणकमलोंसे धरतीकी अर्चना कर रही हैं। वह पुष्पकविमानमें बैठ गयी ! श्रद्धाभावसे भरे विद्यावर इसके चारों ओर थे। सूरज डूबते-डूबते वह कौशलनगरी जा पहुंची। प्रियतम रामने जिस उपवन में उन्हें निर्वासन दिया था, वे उसी के बीच में जाकर बैठ गयीं। किसी प्रकार सवेरा हुआ, आकाशमें सूरज उगा, और सज्जन लोग उनके सम्मुख आये। नगाड़े बज उठे, मंगलों की घोषणा होने लगी। समूचा नगर परितोषकी साँस ले रहा था । सीता निकली, और ऊँचे आसन पर बैंठ गयीं; मानी शासन देवी ही जिनशासनमें आ चंठी हो। अपने प्रथम समागममें ही रामने सीतादेवीको इस प्रकार देखा, मानो शुक्लपक्षके पहले दिन चन्द्रलेखाको समुद्रने देखा हो ॥ १-९ ।।
[८] अपनी कान्ताकी कान्ति देखकर रामने हँसकर कहा, "स्त्री. चाहे कितनी ही कुलीन और अनिन्ध हो, वह बहुत निर्लज होती हैं । भयसे वे अपने कटाक्ष तिरछे दिखाती हैं, परन्तु उनकी मति कुटिल होती है, और उनका अहंकार बढ़ा होता है । बाहर से ढीठ होती हैं, और गुणों से रहित । उनके सौ टुकड़े भी कर