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[ ८६. छायासीमो संधि ]
उवलद्वेण इन्दसण
तिहि मिं जगहिं जं णित्रमंड
सीय पहुत्त किं वणिज । आइ पर तं जितासु उवमिजइ ॥ ध्रुव०
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मणि गौत्तमु मगहंसरेण ||१|| विषय में हुए कि ॥२॥ वदेशी सण्णासण विहाण ||३|| कहि काइँ करइ रामचन्दु ||४|| किं मामण्डलु किं जणउ कमउ ||५|| किं लङ्काहि सुग्गी सा ||६|| चन्दीयरि जम्बवु इन्दु कुन्दु ||७|| मिह सुसंणु अङ्ग तनु ||८|| अणुवि आट विसुअ-साइँ || ९ || अरु त्रि किङ्कर जो वरूहों को वि ॥१०॥ घत्ता
तो उत्तम लाइय करेण 'परमेसर गिर्ने । बोलीणऍ सासऍ सुह-जिहानें । कन्तुज्झि एव दणु विमद्द्दु । किं णु का समोर-तनउ | किं लवणु काई अक्कुसु कुमारु । किं पण दहिहु महिन्दु |
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किं णलु पीलु विसप्तद्दणु अ अट्ट विणारायण-तणय काहूँ । गड गड चन्द्रकरु तुम्मुद्दो वि ।
किं अवराय विमष्ठ मइ किं सुमित्रा सुप्पद गुण-सारा ।
काई करेंसइ दोण-लय ऍड सय त्रिं कजरहि भदारा' ।। ११।।
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कथर्णे हि मुणि-क्षण-मणहरेण । वुश्च पच्छिम जिण गणहरेण ||१|| आपणहि संणिय दिव-मणाहँ । बहु-दिवसेंहिं राहब-लक्खा ||२|| दस- दिसि परिममिय-महाजसा है । अमुणिय प्रमाण-कय- साहला सुरवर-प्रण-णयण-मगोहराएँ । मुसुमूरिय अश्विरपुरवराह ||४||
॥३॥