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________________ सत्तन्तरिम संधि गया। जिससे एक दिन दुनिया काँटी भए भयावह, वह रावण भी जल गया । मानो आग अपनी काँपती हुई शिखासे कह रही थी कि क्या कोई मुझसे बच सकता है । ॥१--१शा ७१ [ २४ ] अरे-अरे लोगो, यह संसार, क्षणभंगुर और निःस्सार है। इसमें नाना अवस्थाएँ देखनी पड़ती हैं, यह दुःखका आवास है, जहाँ हवा से बड़े-बड़े महीधर उड़ जाते हैं, वहाँ क्या धूल समूहको पकड़ा जा सकता है ? जहाँ बढ़वानलले जल जलता है, वहाँ आगसे क्या तिनकोंका समूह बच सकता है ? जहाँ बड़े-बड़े खोंके सौ-सौ टुकड़े हो जाते हैं, वहाँ कमल कितना घमण्ड कर सकते हैं, जहाँ बड़े-बड़े समुद्र जलरहित हो जाते हैं, वहाँ क्या गोपढ़ बच सकता है, जहाँ ऐरावत भी नष्ट हो जाता है, वहाँ खरगोश क्या गर्जन कर सकता है ? जहाँ आकाशका मण्डन करनेवाला सूर्य निस्तेज हो जाता है, वहाँ बेचारा जुगनू क्या करेगा ? जहाँ समर्थ गिरिराज डूब जाता है, वहाँ सरसों बेचारा कैसे ठहर सकता है ! जहाँ एका पीठ रूपी कडाहा फूट जाता है, वहाँ क्या कुम्हारका घड़ा बच सकता है ? जहाँ रावण, जो त्रिभुवनरूपी वनगजके लिए अंकुश था और जो उन्नति के चरम शिखरपर था, बिनाशको प्राप्त हुआ, वहाँ सामान्य मनुष्य भला क्या कर सकता है ।। १-१०। [१५] तब दशाननके व्याकुल परिजनोंने अपना मुख नीचे किये हुए कमल महासरोवर में इस प्रकार प्रवेश किया मानो उन्होंने चिन्ता सागरमें ही प्रवेश किया हो। इसी बीच कमल महासरोवर के किनारेपर बैठ कर रामने नर श्रेष्ठोंको बुलाकर कहा, "अरे भामण्डल, सुसेन और सुप्रीष, आप विद्याघर वंश दीपक हैं, हे जम्बू, मतिसमुद्र, गतिकान्त, दधिमुख,
SR No.090357
Book TitlePaumchariu Part 5
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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