________________
७०
सुरवर- वामरु रावणु द 'अण्णु कहिं महु चुक्कड़'
पउमचरिउ
वत्ता
जासु ज कम्प । एव णाएँ सिंहि जम्प ॥ १२ ॥
[ १ ]
* रे जण गोसारड दरिसिय-पाणावन्थर
I
जहिँ उन्ति महीहर बाएं । जहिं जलायेण जलन्ति जलाएँ वि जहिं कुलिमा जन्ति सय-सकरु होइ महणषो वि जहिं णिष्पड । जहि भट्टराणो नि उस्मान् । जहिं से तरणि गड़-मण्डलु । जहि बुइ अचलिन्दु समस्थउ । कुम्म-कदाह-यस्तु वि जहिं कुछ
विलु खलु संसार । दुक्खावासु वि गरथ ||१|| तहि किं गणु रेणु-संघाएँ ॥२॥ । तहिं तिशोहु किं चुह का वि ॥ ३॥० तर्हि कमलहुँ केसइट मफर ||४॥ तहि पज्झरह काई किर मोप्पट ||५|| तहि फिर का ससठ गलगजइ ॥ ६ ॥ तर्हि किं करइ कन्ति जोड्णु ॥७॥ यहिँ किर कक्णु गहणु सिद्धस्थ || ८ | तहिं कुम्हार- घड किं हह ॥ ९ ॥
वत्ता
जहिं पकड राजु तिङ्कयण-गय- कुसु I उष्णइत्रमल तर्हि सामन्यु काई किर माणुसु' ॥१०॥
[4]
ताब दाण-परियणु सोभाउरु हाणु ।
पहस कमल-महासरेण गावइ चिन्ता सायण ॥१॥
कमलायर - तीरन्तरे थक्के वि । 'यहाँ बिजाइरस प अन्वय-महसमुद्द· महकम्तहाँ ।
पभणड़ रहुबहू णरवर कोक्के वि ॥२॥ भामण्डल - सुसेन सुग्गी वहाँ ॥ ३ ॥ दहिमुह- कुमुल- कुन्द-हष