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छसप्तरिमो मंधि पर, प्रिय को आहत देखकर कोई झूठी आकृति बना रही थी, कोई उसका आलिंगन कर अपनो करधनीसे उसे बाँध रही थी, कोई उत्तम वस्त्रसे, कोई हारसे, कोई सुगन्धित कुसुमभारसे. कोई लीलाकमलसे अपनी छाती पीट रही थी, कोई मुरझाये हर मुखकमलसे बोल रही थी। तुम्हें यद्यपि चक्रकी धाररूपी वधू, प्राणोंसे इतनी प्यारी है, फिर हमारे देखते हुए भी हदयमें घुसी हुई उसे एक पलको तुम नहीं छोड़ सकते ॥ १-२ ॥
[१२] कोई अपनी केशराशि बिखेर रही थी, मानो काले नागोंकी कतारको खिला रही हो, कोई अपनी कुटिल भौहें दिखा रही थी, मानो कामको धनुष लताले आइत करना चाइ रही हो। कोई अपनी बड़ी-बड़ी आँखोंसे देख रही थी मानो नीलकमलोंकी मालासे ढक लेना चाहती थी। कोई अविरल आँसुओंकी धारासे सींच रही थी, मानो जलकी धारा पावस लक्ष्मीका अभिषेक कर रही हो। कोई एक प्रियके पास अपना मुख ले जा रही थी, मानो कमल के ऊपर कमल रख रही हो। कोई अपनी बड़ी-बड़ी मुजाओंसे आलिंगन कर रही थी, मानो मालतीमालासे लिपट रही हो, कोई हाथकी हथेली उसपर फेर रही थी, मानो नये कमलसे उसे छू रही हो। कोई अपना निर्मल करकमल प्रकट कर रही थी, मानो रावणको वर्षण दिखा रही थी। कोई पयोधरोंके घट युगलसे उसे छू रही थी, मानो सौन्दर्य के जलसे उसे सींच रही थी। उस अवसरपर किसी एक आदमीने इन्द्रजीत और कुम्भकर्ण के आवासपर जाकर, परिहासके इस ढंगसे राषणकी मृत्युका समाचार दिया कि जिससे उन्हें धक्का न लगे ।। १-१०।।
[१३] उसने कहा, "आज मैंने बहुत बड़ा अचरज देखा। क्या कमल बनको नष्ट कर सकता है ? या मुट्ठी सुमेरु पर्वतको