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सरासतरिमोइदि गया। जन्मान्तरोंकी भाँति बहुत-सी स्त्रियाँ वहाँ पहुँची। स्वप्नान्तरोंकी भाँति हजारों तूर्य वहाँ थे। उन्हें देखकर खजनोंकी भाँति शंख रो रहे थे, पक्षियोंकी भाँति अनुचर फल लिये हुए थे, दान और भोगके समूहकी तरह बन्दीजन यहाँ थे | नवयौवनके दिवसोंको भौति बन्धुजन वहाँ थे, रत्नोंसे भरी हुई तीन खण्ड धरतो, चमर चिह्न ध्वज और दण्ड, लंकाका सिंहासन और छत्र छोड़फर वे खोटी स्त्रीकी भाँति स्थित हो गयौं । हाथी चलं गये और ऐसे गये कि फिर लौटकर नहीं आये । अश्वोंकी ऐसी दुर्गति हुई कि फिर उनमें जान नहीं आयी । रह-रहकर, एक एक रथ दूर हो गया । भला सूर्य के अस्त होनेपर कौन-कौन दीख सकता है? उस अवसरपर सन्तुष्ट और प्रसन्न चन्दनकी लकड़ियोंने कहा, "हे स्वामी, जिनपर आपका प्रसाद था उनमें से एक भी तुम्हारे काम नहीं आया। हे स्वामी, इस समय आपको हम घसीटें तो लोग हमें कठोर कहेंगे । यद्यपि आपने मेरा सम्मान अपने हाथों नहीं किया है, परन्तु फिर भी आगमें तुम्हारे साथ स्वयंको भी जलाऊँगी।' ॥१-१२।।
[२] इसी अन्तरालमें नीला-नीला धूम-समूह चिता से उठा, उसने समूचे आकाशमार्गको अँधेरे से भर दिया। वह ऐसा लगता था मानो रावणका अयश निकला हो । वह दसों दिशाओंको मैला करता हुआ जा रहा था, अकुलीनकी भाँति कहीं भी नहीं समा रहा था; धूमके भीतर आग ऐसी लगती थी, मानो पानीके भीतर बिजली-समूह हो। अकुलीन पहले पैरोपर लगता है, फिर वह नीच ऊपरं चढ़ता है ! रावणके पैरोंको, जो कभी बड़े. बड़े राजाओंसे चूमे जाते थे, और जिनके नलों में सूर्य और