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एकासीइमो संधि
१३५ जो शाश्वत सिद्धिको देते हैं, फिर उसने आचार्य के सात वर्णीका उच्चारण किया जो परम आचरणके विचारक हैं, फिर उसने उपाध्यायके नौ वर्णोका उच्चारण किया और सर्वसाधुओंके नौ दणीका उच्चारण किया जो संसारके भयको दूर करते हैं। इस प्रकार पैंतीस अक्षर जो शास्त्र रूपी समुद्रकी परम्पराएँ बनाते हैं, जो विषके समान विषम विपयों का नाश करते हैं और जो मोक्ष नगरी के द्वारोंका उद्घाटन करते हैं, वे मुझे शुभगति प्रदान करें, यह कहकर वह आत्मध्यान में स्थित हा गया। उसका शरीरान्त गजवरपर ही हो गया। देवताओंने सुमन बरसाये और साधुवाद किया, कुमार शत्रुन्न भी मथुरा नगरीका स्वयं उपयोग करने लगा |12-२।।
इक्यासी सन्धि
राम जब अनुरक्त थे तो उन्होंने वनवास स्वीकार किया, समुद्र लौघा और रावणका वध किया, परन्तु अन्तमें वही राम बिरत हो उठे और सीता देवी का परित्याग कर दिया।
[२] सच बात तो यह है कि उनका मन विरक्त हो उठा था, फिर भी सीताका परित्याग किया लोकापवाद के बहाने । राघवने मनकी विरक्ति के कारण ही सीताका परित्याग किया। इसी विरक्त चित्तके कारण उन्होंने अपनी प्राणप्यारी सीता देवीका परित्याग किया। यह वहीं विरक्त मन था कि सीता देवीको इस प्रकार वनमें निर्वासित कर दिया। एक दिन सौन्दर्य विधात्री सीता देवी रामके पास पहुँची उन रामके पास जो अमृत