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जवइमो संधि फलसे उसे यह सब प्राप्त हुआ?" इसपर रामने कहा, "सुनो बताता हूँ। अयोध्या विशालबाहु कुलपति था। उसकी मनचाही पत्नी मगरी थी । उसके बन्न नाम का एक पुत्र उत्पन्न हुआ। अपनी धन-सम्पत्तिसे उसने कुबेरको भी मात दे दी। एक दिन जब उसने सीतादेवीके निर्वासनकी बात सुनी तो शोकसे व्याकुल होकर वह अपने मन में सोचने लगा, "वह दिव्य गुणोंसे अलंकृत है, उसकी देह सुकुमार है, वह अत्यन्त सुन्दर है, उसम रूपमें वह श्रीदेवीके समान है, देखो उस बेचारीकी वनमें क्या अवस्था हुई" | जब उसने इस बातका विचार किया तो उसे वैराग्य हो गया। उसने पुत्र-कलत्रका परित्याग कर दिया और मुनिसुव्रत भगवान्का नाम अपने मनमें रखकर द्रुतमुनिके पास जाकर तप स्वीकार कर लिया।" ॥१२॥
[३] उसके अशोक और तिलक नामके दो बेटे थे। पिताके स्नेहके कारण वे दोनों फूट-फूट कर रोने लगे । अपनी पलिगेंके साथ उन दोनोंने भी द्रुत महामुनिके पास जाकर दीक्षा ले ली । बहुत दिनों तक उन्होंने घोर तपश्चरण किया और शास्त्रों में बतायी हुई युक्तियों के अनुसार वे विहार करते रहे। वहाँसे ते ताम्रचूर्ण नगर गये। तीनों ने जिन भगवानकी वन्दना भक्ति की । इतनेमें उन्हें रेतका समुद्र दिखाई दिया, जो नरकके समान अत्यन्त दुर्गम दिखाई देता था। सूर्यसे तपे हुए रेतके स्थान ऐसे दिखाई देते थे, मानो सज्जन पुरुषोंके विशाल भन हों। उन्होंने किसी प्रकार बड़ी कठिनाईसे उसे पार किया मानो सिद्धाने संसार-ममुद्र पार किया हो। वे तीनों ही मुनि श्रेष्ठ (वा, अशोक एवं तिलक ) जिन्होंने आठ मोंका नाश कर लिया था, पचास योजन तक चले गये ॥१-८॥
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