________________
पंचहत्तरिमो संधि [२] दोनों ही दुर्दम शरीरवाले थे। दोनोंने धनुष दूर छोड़ हिप के . दोनों पानी थे। भलों से एक दूसरे पर प्रहार कर रहे थे। उन अस्त्रोंसे जो दानव और इन्द्रका घमण्ड चूर-चूर करनेवाले थे । जो जल, थल और नभको ढक सकते थे, बिजली अन्धकार और सूर्यको अस्तित्व विहीन कर सकते थे। उन्होंने पहाड़, गरुड़, पत्थर,पादप, वारुण, आग्नेय और वायव्य अत्रोंसे एक दूसरेपर आक्रमण किया । तब अभिमुख और दधिमुखके मामा मय दोनोंकी कॉपती हुई ध्वजमालासे व्याकुल हो रहा था। उसका रथ स्वर्णपर्वतकी तरह था, देवताओंके आघातोंके धाव उसके शरीरपर अंकित थे। उसकी कोपज्वाला वेगसे जल रही थी, उसने वीरों के साथ अपना धनुष उठा लिया था। इन्द्रकुमारके नाना मयने हनुमान के ध्वजके टुकड़े-टुकड़े कर दिये। यह देखकर रावण के नन्दनवनको उजाड़ देनेवाले उसने तीरोंसे आघात पहुँचा कर, अश्व, सारथि और ध्वजसहित उसके रथके सौ टुकड़े कर दिये। सब मयने आकाशगामिनी विद्यासे दूसरा रथ उत्पन्न कर लिया और उसपर चढ़ गया ।। १-१०||
(३] हनुमानने वन्दीजनोंसे अभिनन्दनीय उस रथको तोड़ दिया। बुद्धभारकी धवलधूलसे धूसरित वह रथ, ध्वजपटके आटोपसे विशाल दिखाई दे रहा था । मजबूत चाकोंके आरोंकी आवाजसे समूचा आसमान जैसे बधिर हो उठा। पवनसुतने उस रथको इस प्रकार तोड़ दिया जैसे बिजली गिरनेसे पहाड़ टूट जाता है, या जिस प्रकार अन्धड़ पेड़को उखाड़ देता है। रावणने जब देखा कि उसके सैनिक आहत हो चुके हैं, रथवर नष्ट हो चुके हैं, ध्वजपट फट चुके हैं, तो उसने अपना मायाले बना विशाल रथ भेजा जो हाथियों के सीत्कार (जल मिश्रित