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पदमवरि
महु कारण विहि मि जहि भव- सायरे कोहवण
घत्ता
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तुर्डे पर भ्रण्ड किय होयऍ जिणन्वयणामय पश्पिीय उ
जाहूँ महता हूँ । दुख पाएँ ||१२||
कोहु मूल सवहुँ वि भणरथहुँ । कोहु विणास करणु दय-भ्रम्म कोड जें मूल जग-सय-मरणहाँ । कोहु से वहरि सम्बहाँ जीवों कोहु चिजहाँ विम-सहावहाँ । हणिसुर्णेवि इव दणाणतरें । 'किंकिदिन
हा हा का पाठ कर बडूउ |
यो परिषद्रिय मनें काहणें । स- परम्पराएँ मम्मीलिय । 'छइ वह एस्थही उद्धारमि । चिणि चि जण सहसा सोहमद एवं भणेषि किर जावहि । अरुणें तुप्पु जेम सिंह तानि । सोमायहि भग्गा
।
कोहु मूल संसारावत्थहुँ ||१|| कोहु जँ मूलु वोर- दुकम्महों ॥२॥ कोहु में मूल परम-पसरण ॥ ३ ॥ में कज्जे अहाँ हरि दहगी वहीं ||४|| अवशेप्पर मित्तत्तणु भाष' ॥५॥ सिणि वि ते समिय खणन्तरे ॥ ६ हुँ ॥७॥
म
जं सम्पाद्य कुहु एवड्डू ||८||
घता
जें छण्डिप कु-मह जाठ सुराशिव' || ९ |
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बासवेण दुध्यहुर-वर्णे ||१|| 'पहु ऐहु' आलाव पभासिय || २ || दुग्गइत्तर-डिणि तारमि ॥३॥ | सम् पराणमि अअ णास्व ॥४॥ छोडि जेम विवि गय तावहिं ॥ ५ अइ-गेज्झ दप्पण -खाय-व थिय ॥३ केम त्रिवि ण सकिय इन्हें ||७||