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________________ जवासीम संधि ३३ ने भी दीक्षा ग्रहण कर ली। उस कोटिशिलापर उन्हें ज्ञानकी प्राप्ति हुई हैं और मैं तुम्हें सम्बोधित करने आयी हूँ, मेरे कारण तुम दोनोंको भवसागरमें कोधके कारण बड़े-बड़े दुःख उठाने पड़े ॥१-१२ || [१०] वास्तव में क्रोध ही सब अनथका मूल है, संसारावस्थाका भी ate are frame मूल है. क्रोध घोर पाप कर्मो का मूल है, तीनों लोकोंमें मृत्युका कारण क्रोध है, नरक में प्रवेशका कारण भी क्रोध है। क्रोध सभी जीवोंका शत्र है। इसलिए हे विपमस्वभाव लक्ष्मण और रावण, तुम लोग इस क्रोधको छोड़ दो। आपसमें तुम दोनों मित्रताकी भावना करो।" इस बचनामृतको सुननेके अनन्तर वे तीनों तत्काल शान्त हो गये। वे सोचने लगे कि हमने दयाधर्ममें अपनी दृष्टि क्यों नहीं की, इससे हमें मनुष्य पर्याय तो मिलती, अरे अरे हमने ऐसा कौन-सा बड़ा पाप किया जिसके कारण इतना बड़ा दुःख भोगना पड़ा।" जीवलोकमें तुम धन्य हो जिसने कुमतिका परित्याग कर दिया। तुमने जिन वचनामृतका पान किया और स्वर्ग में जाकर इन्द्र हुए || १-२|| [११] यह सब सुनकर पीतवर्ण उस इन्द्रके मनमें करुणा उत्पन्न हो आयी । परम्परागत शब्दों में उसने उन्हें अभय वचन दिया और कहा - "आओ-आओ, लो मैं हूँ, मैं तुम्हें दुर्गति रूपी नदीके किनारे लगा कर भानूँगा। तुम दोनोंको मैं शीघ्र ही सोलहवें अच्युत स्वर्ग में ले जाऊँगा ।" यह कहकर जैसे ही वह इन्द्र उन्हें लेने के लिए उद्यत हुआ वैसे ही वे नवनीतकी भाँति गायब हो गये | आगमें जैसे घी सप जाता है, अथवा दर्पणकी छाया जैसे अत्यन्त दुर्भाय हो जाती है। इन्द्रने
SR No.090357
Book TitlePaumchariu Part 5
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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