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घरासीमो संधि के नन्दीकी तरह बैल बने उनकी काँधोर ऊँची थी, और कन्धे मजबल ओर मोटे थे। फिर ने गाँप रने, और नव मन्दर, फिर वे मेंढक बने, और फिर काले चिकने हरिण, फिर और दूसरे प्रकारके थलचर बने । फिर क्रमसे दूसरे-दूसरे नभचर और थलचर जीच बने। इस प्रकार वे अत्यन्त दुःसह दुखोंको सहन करते रहे। फिर भी उनका एक दूसरंके प्रति ईर्ष्याका भाव बना रहा। इस प्रकार पुरवले वैरके सम्बन्धसे वे भयंकर संसारमें भटकते रहे, इसलिए संसारमें सबसे बड़ा पण्डित वह है जो किसीके प्रति भी वैर-भावका ऋण धारण नहीं करता ॥ १-९॥
__ [६] इधर धनदत्त भी अत्यन्त व्याकुल होकर मलसे धूसरित और भूख-प्याससे पीड़ित होकर देश-देशमें भटकता फिरा। काफी दूर-दूर तक भद करेके श्रमसे वह थक चुका था। सन्ध्या समय उसे एक जिनालय मिला । उसे देखते हो, वह एक ही पलमें बड़बड़ाने लगा, “अरे पुण्य प्रिय प्रत्रजित मुनियो, मेरी इन भूख, प्यास आदि व्याधियोको ले लीजिए, यदि तुम्हारे पास जलरूपी औषधि हो तो मुझे दे दो, ताकि मैं अपनी प्यास बुझा सकें।" यह सुनकर उनमें से मुख्य मुनि हँसकर बोले, "अरे पानी पीनेका यह कौन-सा अवसर है, अरे मूर्ख, मैं तुम्हें हृदयसे शिक्षा देता हूँ, जहाँ इतना अन्धकार है कि तुझे कुछ भी दिखाई नहीं देता । सूर्यास्त होते ही, हद:मनके भन्य जन भोजन भी नहीं करते । रातमें प्रेस, महापह, डाइन, और भूत ही प्रचुरतासे दिखाई देते हैं। बड़ीसे बड़ी व्याधिसे भी पीड़ित होने पर रातमें जब दवा तक नहीं ली जाती, वहाँ इस घोर रातमें पानी कैसे पिया जा सकता है।॥ १-१० ।।