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[ ८४. चउरासीमो सन्धि ] पणवेंषि बुत्तु विहीण । किं जें हिय रावण ॥
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एत्थन्तरे सविस
'क मुणिवर सीय महासइ
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अष्णु वि जिय रयनिय राहवेण कहें गुरु किन सकिर काइँ एण अणुवि धारार-वस- सारु । दसकन्धरु तरणि व दोस- चत्तु । जो ण वि श्रायामिड सुरवरेहिं । सो दहमुद्दु कमल-दलक्खणेण । मेल्लेपणु यि मायरु महन्तु । हि भामण्डलु सुग्गी पहु |
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सं किसुणेपिणु हय-मयर | 'इह जम्बूदीवहीँ अमन्तरें ।
जिम्मन्त राहवेण ॥ १ ॥ एवढ पटुप जेण ॥२॥ परमागम जलणिहि विराय-पारु ॥३ किह मूड पेक्खचि पर-कलत्तु ||४|| बिसहर- विज्जाहर णरवरेहिं ॥ ५॥ सिंह र विणिवाइड लक्खणे ||६|| हउँ कि हरि वह सणेहवम् ॥७ ॥ रामोत्ररि बड्डिय-गरुअ-हु ॥८॥
धत्ता
अण्णा भने जपयों दुहिआएँ काहूँ किय गुरु-दुकियहूँ । पल महन्त दुक्ख सयहूँ ||९||
जे जम्मही लगों व दुस्सहइँ
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कहइ सयलभूलणु धम्मन् ॥३॥ भरत दाहिण- कन्दरें ॥२॥ चडाउ गाई कोडीसरु ॥३॥ णं धणयाँ वणएवि मनोहर || ४ || पुणु वसु वीज दिहि-गार ||५|| अवरु पुरं वणिवरु ॥६॥
मरिणयद वणीसह । वहीं सुणन्द्र पिय पीण-पत्रहर तहाँ दस पुरा पहिकारत
तहाँ जण्णव लि-णार सुहि दिववरु । सायद