SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 133
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मसीइमो संधि सामन्तोंको स्थापित कर युद्धविजेता रामने शत्रुघ्नसे कहा, "क्या यह धरती, तुम्है, मुझे और लक्ष्मणको पर्याप्त नहीं जान पड़ती? हमें अपने बीच में अपनी बात प्रकट करनी चाहिए, और जिसके मनमें जो मण्डल पसन्द आये वह उसे ले ले । यह सुनकर सुप्रभाफे पुत्र शत्रुघ्नने कहा, "यदि मुझपर दया करते हैं, तो मुझे मधुराजको मथुरा नगरी प्रदान करें" ॥१-९॥ [३] यह सुनकर रामने अपनी चिन्ता बतायी, "मथुरा नगरी दुर्गाध है, इसमें प्रवेश करोगे कैसे ? वहाँका राजा मधु युद्ध में मेरे लिए भी असाध्य है। उसकी दृष्टि से रावण आज भी नहीं मरा। प्रलय सूर्य के समान चमकनेकाले चमरासुरने उसे एक शूल दिया है। उस राजा मधुको कौन जीत सकता है, नागके फणामणिको कौन छीन सकता है । तुम अभी बच्चे हो। तुम्हारी उम्र ही क्या है अब । वह युद्ध में देवताओं के लिए भयंकर हो उठता है। दुर्दमदानवोंको देहका विदारण करने में समर्थ अस्त्रोंको तुम किस प्रकार झेलोगे।" यह सुन कर शत्रुघ्नने प्रमाणपूर्वक रामसे निवेदन किया, "हे देव, में निश्चय ही शत्रुघ्न हूँ। यदि मैं मधुरापति मधुको नहीं मार सका तो आपकी जय भी नहीं बोलूंगा। यदि वह यम तो क्या, उसके बापको भी शरणमें जायगा तो उस मधुराधिप रूपी साँपके जीवन पर विपक्रो निकाल लूंगा" ||१-२॥ [४] तन्त्र सुप्रभाने उसे डींग हाँकनेसे रोकते हुए कहा, “हे पुत्र, इस समय प्रतिज्ञा करनेसे क्या लाभ ? वह बोलना चाहिए जो निम जाय, बढ़-चढ़कर बात करनेसे सुभटको जय प्राप्त नहीं होती। क्या तुमने अपने भाइयों का साहस नहीं देखा ? दोनोंने मिलकर, निशाचरोका नाश कर दिया, क्या तुमने अनन्य गुणोंसे विशिष्ट, अगरण्य और अनन्तयीका चरित
SR No.090357
Book TitlePaumchariu Part 5
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy