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________________ | अन्तरिम संधि १३ सुन्दर-सुन्दर स्थानों को देखकर भी रामका मन कहीं भी नहीं लगा। वह अपनी पत्नी, भाई और अनुचरों के साथ शान्तिजिनमन्दिर में गये ॥ १-२ ॥ [११] वहाँपर उन्होंने इन्द्रियों का दमन करनेवाले, शान्तिनाथ भगवान्की स्तुति प्रारम्भ की-- "हे स्वामी ! आपने कामको समाप्त कर दिया है। आपके अंग कान्तिस मण्डित है। आप दयाको मूलधर्म मानते हैं, आपने आठ कर्मों का नाश किया है। और आप तीनो लोकों में गमन करते हैं, आप इन्द्रके भी स्वामी हैं, आप महादेव हैं—बड़े-बड़े लोग आपकी सेवा करते है, आप जरारोगका नाश करनेवाले हैं; आपकी कान्ति असाधारण है। आपको केवलज्ञान उत्पन्न हो चुका है। आपने अप्रमाणता अंगीकार कर ली है, तीन श्वेत आतपत्र आपके ऊपर हैं, आपको महान् ऋद्धियाँ उपलब्ध हैं। आप अनन्त हैं, महान आप कान्ताविहीन हैं, चिन्ताओं से दूर हैं, ईर्ष्या और बाधाओं से परे हैं, लोभ और मोह आपके पास नहीं फटकते, न आपमें क्रोध है और न क्षोभ । न योद्धापन है और न मोह । न दुःख है, न सुख है, न मान है और न सम्मान, न आप अज्ञानी हैं और न सज्ञानी, न अनाथ हैं और न सनाथ | इस प्रकार शान्तिनाथ भगवानकी स्तुति कर रामने विश्राम किया | इसके अनन्तर आज्ञाकारी विभीषण पत्नी, लक्ष्मण और सेनाके साथ उन्हें अपने घर ले गया ॥ १-१४ ।। [१२] इसी बीच विभीषणकी चतुर पत्नी विदग्धादेवी एक हजार सुन्दरियो के साथ दही, दूब, जल और अक्षत हाथमें लेकर शीघ्र ही वहाँ पहुँची जहाँ राम और लक्ष्मण थे । अनेक आशीर्वादों, आरतियों, प्रणामों, जय बढ़ो, प्रसन्न होओ
SR No.090357
Book TitlePaumchariu Part 5
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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