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तेासीमो संधि
१४९ दीजिए, परन्तु फिर भी हीन नहीं होती। अपने कुलमें दाग लगानेसे भी वे नहीं झिझकतीं और न इस बातसे कि निमुक्न में उनके अयशका डंका बज सकता है । अंग समेटकर धिक्कारनेवाले पतिको कैसे अपना मुख दिखाती हैं।" परन्तु सीता अपने सतीत्वके विश्वाससे जरा भी नहीं डरी। उसने ईया और गर्व से भरकर उलटा रामसे कहा, "आदमी चाहे कमजोर हो या गुणवान स्त्रियों मरते दम तक उसका परित्याग नहीं करती । पवित्र और कुलीन नर्मदा नदी, रेत, लकड़ी और पानी बहाती हुई समद के पास जाती है, फिर भी मन मोहर ताली देनेसे नहीं अघाता ।। ५-५ ।।।
[९] श्वान (कुत्ता) को कोई आदर नहीं देता, भले ही गंगा नदीमें उसे नहलाया जाये | चन्द्रमा कलंक सहित होता है, फिर भी उसकी प्रभा निर्मल होती है । मेघ काले होते हैं, किन्तु उनकी बिजली गोरी होती है। पत्थर अपूज्य होता है, परन्तु उसकी प्रतिमा पर चन्दनसे लेप किया जाता है। कीचड़के लगने पर लोग पैर धोते हैं, पर उससे उत्पन्न कमलमाला जिनवरको अर्पित होती है। दीपक स्वभाषसे काला होता है, परन्तु अपनी बत्तीकी शिखासे आलेकी शोभा बढ़ाता है। नर और नारीमें यदि अन्तर है तो यही कि मरते-मरते भी लता पेड़का सहारा नहीं छोड़ती। तुमने यह सब क्या बोलना प्रारम्भ किया है ? मैं आज भी सतीत्वको पत्ताका ऊँची किये हुई हूँ। इसीलिए तुम्हारे देखते हुए भी मैं विश्रब्ध हूँ। आग यदि मुझे जलाने में समर्थ हो तो मुझे जला दे। और दूसरी बड़ी बातसे क्या होगा, जिससे मेरा मन ही शुद्ध न हो। जिसप्रकार आगमें पड़कर सोनेकी डोर घमक अठतो है, इसीप्रकार मैं भी आगके मध्य बैठूगी" || १-२॥