________________
२२८
पउमचरित जं मुणि पुरुष-जम्में जिन्दन्ती। त इह दुहहै महन्त पत्ती ॥३०॥
घत्ता सिरिभूइ काले सुअ-कारण जे हल सम्भु-गरसरण । से लदेसर चिरु हिस्णु त्रिणिवाइउ लकीहरण' ॥११॥
[५] गुरू-बयणेहि तहि गोलिट। पुणु वि विहीसणुएम पधोल्लित ॥३॥ 'कहें के कम्में जणण विणीयह। सइहें चि लन्छणु लाइउ सीय॥२॥ तं णिसुणेवि वयणु मुणि-पुजम् । अरसा पाण-महागइ-समम् ॥३॥ 'मुणि सुअरिसणुआसिधिहरम्तड । मण्डलि-णामु गामु संपत्तम | भिड जम्दणवणे णिरु णिम्मल-मणु। तं बम्रेपिपणु मज सयलु विजणु॥५॥ मुणिवी वि लहु-बहिणिएँ सवणएँ । सइ महसहए समउ सुमरिसणऍ॥६॥ किं पि चवन्तु गिऍदि बेअबइऐं। कहिंड असेसह कोयह कुमइ ॥
पत्ता
किं चोज एक जंणार हि दूसिजाइ बरु हरिहि वणु। राउल-जिहाउ दुग्धरिणिहिं पिसुग-सहासें साहु-जणु ॥८॥
[२१] "तुम्हहिं भणहु चारु धम्मदउ । णिज्जिय-पश्चेन्दिय-मयाउ || ।। मई पुणु ऍटु सयमेव परिक्सिउ । महुँ महिल' एअन्ते परिदिउ" ॥५॥ एम ताएँ तब-णियम-सणाहहों। लोप अगाया कि मुणि-णाहहाँ ॥३॥ सो वि करेवि भवग्गडु थाइड। “जा फिटु संवाउ गुरुाउ ॥२॥ ता णिबित्ति महु सयलाहारहीं"। जाणवि णिच्छा हय-संसारहों ।।५।। सासण-देवयाएँ भस्थाएँ। मुहु सूणाषित गरआसाएँ ॥६॥