SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 291
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्तासीमो संधि करोड़ आसराएँ उसके साथ थीं। उसका शरीर तरह-तरह के आभूषणोंसे चमक रहा था । समुद्र के समान गम्भीर और पहाड़की भाँति धीर था । महा ऋद्धियों और शक्तियोंसे सम्पूर्ण था । उत्सम बल और रूपमें एक दम खिला हुआ था । लोकपाल प्रमुख बड़े-बड़े देवताओं और शेष सभी देवताओंके सम्मुख उसने कहा, "जिसके प्रसादसे यह इन्द्रत्व मिलता है देवत्व और सिद्धत्व मिलता है, जिन्होंने एक अकेले मानसमुज्वल चक्रसे संसारके घोर सानुमा हनन कर दिया है, जिन्होंने सलाह के घोर दुःखोंका निवारण किया है, जो भन्यजीवोंको खेलखेलमें तार देते हैं। सुमेरुपर्वतके शिखरपर देवेन्द्र जिनका मंगल अभिषेक करते हैं, उनको सदा आदरपूर्वक प्रणाम करना चाहिए, यदि हम संसार और मृत्युका विनाश करना चाहते हैं । ॥१-१॥ [] जो सचराचर धरतीको छोड़कर तीनों लोकोंके ऊपर घदकर विराजमान हैं। जिनका नाम शिव,शम्भु और जिनेश्वर है, देषदेव महेश्वर हैं जो। जिन, जिनेन्द्र, कालंजय, शंकर, स्थाणु, हिरण्यगर्भ, तीर्थकर, विधु, स्वयम्भू, सद्धर्म, स्वयंप्रमु, भरत, अरुइ, अरहन्त, जयप्रभ, सूरि, शानलोचन, त्रिभुवनगुरु, केवली, रुद्र, विष्णु, हर, जगद्गुरु, सूक्ष्मसुख, निरपेक्ष परम्पर, परमाणु परम्पर, अगुरु, अलघु, निरंजन, निष्कल, जगमंगल, निरषयव और निर्मल हैं। इन नामोंसे जो भुक्नतल में देवताओं, नागों और मनुष्योंके द्वारा संस्तुत्य है, तुम उन परम आदरणीय ऋषभनाथके चरण युगलोंकी मफिमें अपनेको डुबा दो ! ॥१-८|| [४] भवसमुद्र में जीव अनादिनिधन है, कर्मके अधीन होकर दुःख योनियों में भटकता है। किसी प्रकार मनुष्य योनिमें
SR No.090357
Book TitlePaumchariu Part 5
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy