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अट्ठासीभो संधि
होती है। सुनिए, मैं और भी हूँ विशेषता कुशलता उन्हीं की है, जो क्लेशसे मुक्त हैं। जिन्होंने परिग्रह छोड़ दिया है, जो त्रतोंसे शोभित हैं और जिन्होंने जिनभगवान् के चरण-कमलों में दीक्षा ग्रहण की है ।। १-१० ।।
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[८] रामने पुनः उनसे पूछा, "तुम कौन हो सच-सच बताओ, किसलिए तुमने इन ऋद्धियोंका प्रकाशन किया ? किसलिए तुमने शत्रुसेना के प्रयासको समाप्त कर दिया ?" यह सुनकर, एक देवने हर्ष पूर्वक कहा, "हे स्वामी, क्या मुझ विद्याघरको भूल गये, जब आपने ause वनमें प्रवेश किया था, उस समय महामुनिके दर्शनके अवसरपर मैं आपको मिला थाः आपकी पत्नी ने अपने पुत्रके समान मेरा लालन-पालन किया था। सीता अपहरण के समय मैं उड़कर आकाश तक गया था और वहाँपर रावणसे भिड़ा था। उससे मृत्युको प्राप्त होनेपर आपने मुझे पाँच नमस्कार मन्त्र दिया था। इस प्रकार आपके प्रसादसे ऋद्धियोंसे युक्त महेन्द्र स्वर्ग में देव उत्पन्न हुआ । मैं आपसे सचमुच बहुत उपकृत हुआ आपने संसार-समुद्र में पड़ने से मुझे बचा लिया। मैं वही जटायु हूँ और आपका प्रति उपकार करने आया हूँ” ॥ १-९ ॥
[२] तब इतने में कृतान्तदेवने कहा, "क्या हे राजन, आप मुझे भूल गये। मैं तो बहुत समय तक आपका सेनापति रहा, सैकड़ों युद्ध में अस्थिर रहा। आपने आदरणीय शत्रुघ्नके साथ मुझे युद्ध में भेजा था । उसने महाबाहु राजा मथुराको घेर लिया था। उसमें मधुका बेटा लवण महार्णव मारा गया । fre केवलीके पास मैंने आपके अन्मान्तर निरन्तर सुने, उससे मुझे चार गतियों में भटकने का डर उत्पन्न हो गया, मुझे सहसा