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एकासीम संधि
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[७] तब रामने लक्ष्मणको पकड़ लिया, वैसे ही जैसे यमुनाके प्रवाहको गंगाका प्रवाह रोक लेता है। यदि समुद्र अपनी मर्यादा तोड़ दे, तो कौन उसके सम्मुख ठहर सकता है। यद्यपि कोल, शबर प्रतिदिन कन्द-मूल उखाड़ा करते हैं, फिर भी विन्ध्याचल क्रोध नहीं करता। लोग चन्दनको काटते हैं, टुकड़े-टुकड़े करते हैं, बिसते हैं, फिर भी अपनी धवलता नहीं छोड़ता, जब राजा लोग प्रजाको न्यायसे अंगीकार कर लेते हैं, वह बुरा-भला भी कहे, तब भी वे उसका पालन करते हैं ।" यह सुनकर कुमार लक्ष्मणने राधय से प्रतिवेदन किया- "अरे परमेश्वर, यह बहुत बड़े अपमान की बात है, जो जनपड़ अपने ही स्वामीकी इज्जत नहीं करता, प्रसिद्ध यशवाले राजकुलकी ह्री निन्दा करता है। रघु, काकुत्स्थ, अगरण, विराम, दशरथ, भग्न और राम आदि - जो भी महापुरुष इक्ष्वाकुकुलमें उत्पन्न हुए. हैं उन सबने इस महानगरीका प्रतिपालन किया है। हे आदरणीय, उनके उस प्रजोषकाररूपी वृक्षका परमफल हमने पा लिया ॥ १-१०॥
[८] इस प्रकार रामने किसी तरह लक्ष्मणको समझा-बुझा दिया | परन्तु अब उन्हें सीताका नाम तक अच्छा नहीं लगता था। उन्होंने कहा, "हे भाई, तुम इसे दूर करो, जनकतनयाको कहीं भी वनमें छोड़ आओ। चाहे वह मरे या जिये, उससे अब क्या ? क्या दिनमणिके साथ रात रह सकती हैं। रघुकुलमैं कलंक मत लगने दो, त्रिभुवनमें कहीं अयशका डंका न पिट जाय ।" यह सुनकर कैकेयीका पुत्र लक्ष्मण निरुत्तर हो गया । बह सेनानी शीघ्र रथ ले आया। अपनी-अपनी सीमामें स्थित अशेष नागरिकोंके देखते-देखते उसने देवी सीताको रथपर
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