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________________ णवासीमो संधि ३२. वीं । वे विलासिनी-सुन्दरियाँ वहाँ पहुँची । एक मनोहर गान गा रही थी, दूसरी वीणा बजा रही थी। एक दूसरी चारों दिशाओं में नाच रही थी और कटाक्षोंके साथ अपनी दृष्टि घुमा रही थी। एक और दूसरी चन्दन और केशरसे रंजित अपना स्तन दिखा रही थी। परन्तु राम विचलित नहीं हुए, परिषद रूपी शत्रुओंको जीतनेवाले निभेल ध्यानसे युक्त मुनीश राम मेरुपर्वतके समान स्थित थे ।।१-१०|| [७] पापोंको जड़से उखाड़नेवाले राधव मुनिवरका मन नहीं डिंगा । माघ माइके शुक्लपझमें बारहवींकी रातके चौथे प्रहरमें उन्होंने चार धातिया कर्मों का नाश कर परम उज्ज्वल ज्ञान प्राम कर लिया। एक ही क्षणमें उन्हें केवल चक्षु ज्ञान उत्पन्न हो गया और उन्हें सचराचर लोक गोपदके समान दिखाई देने लगा। तुरन्त चारों निकायोंके देवता वहाँ आये | इन्द्र भी अपने समस्त वैभवके साथ आया। उन्होंने आकर केवलहानकी उत्पत्तिकी भक्ति भावसे अनिंद्य पूजा की। इतने में उस स्वयंप्रभ नामके सीतेन्द्र ने केवलज्ञानकी चर्चा की। अपना सिर झुका कर उसने कहा, "हे देव, मैंने अहानसे तुम्हारे साथ बुरा बर्ताव किया।" अविनयके कारण जो मारी अपराध किया है, हे त्रिभुवनसे वन्दित, तुम मेरा अपराध क्षमा कर दो ।" ॥-९॥ [4] उसने सैकड़ों बार अपनी निन्दा की और इस प्रकार रामसे क्षमा याचना कर बार-बार उनकी बन्दना-भक्ति की। उसने लक्ष्मणके गुणसमूहका स्मरण किया । लक्ष्मणको प्रतिबोधित करनेके लिए वह स्वयंप्रभ देव वहाँसे चला। पहले नरक रलप्रभको लाँधकर फिर उसने दूसरे शर्कराप्रभ गरकका अतिक्रमण किया और फिर एक पलमें शालुकाप्रभ नरफमें पहुँचा ।
SR No.090357
Book TitlePaumchariu Part 5
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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