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परामचरित
घत्ता तो दुश्चइ कियन्त-गिलाणे 'सुङ मि एड परिवम्मिट पाणे । बहहि सरीरु र धिसिद्ध म ला ९ का पिट
[५] तं णिसुर्णेवि षयणु णीसा । हरि संबवि सुबह मे ॥१॥ "किं सिरि-णिकउ कुमार दुगुकाहि । बाद मुणहि सो सेरव मच्छहि ॥२॥ केसिन पचहि मणि अमालु। दोसु पहकह सड़ पर केवलु' ॥३॥ सम्पद जाव वपशु शड हलहरू । ताव लएविणु सुहर-काळेवरु ॥३॥ आउ जसाइ पहाड बन्धे । पत्तु मलेण भाइ-सोअन्धे ॥५॥ णेह-पसेण विवज्जिय-रज्जें। पॅदु णर-देहु वहहि कि कई || तेण चवित 'माँ किन किं पुश्चहि । श्रप्पाणउ किर काई ण पेच्छाहि ॥७॥ जिह हउँ सेम नहु मि भणे मूळ । अच्छहि सम्में कलेवर-बूटा ॥४॥ पई पेक्वप्पिा मा भगुरूबर। मणे परिभबिट गेहु गरूड ||
पत्ता भो भो मन्पिमुहहुँ चिरु जायई तुहुँ राणा सम्बहु मि पिसायहुँ । माउ दुइ वि मह-मोह-मम्ता हिण्डहुँ गहिलर कोड कान्ता' ||mou
इह घपणे हि इलि-बल-पदम-शामु । महलजिउ सिविलिय-मोहु रामु ।।।। सहसा हुउ वियसिय कमळ-णय । परिचिन्तहुँ कग्गु जिणिन्द-ययणु ॥२॥ जं दुझिय-कम्मर खयहाँ णेह। जं अविचल-सासय-सुहरें । ॥३॥ 'हउँ गेह-वसझाव पेक्षु केव। चाणम्तो वि अच्छभि मुक्खु ओम ॥४॥ धाड तिहुअणे अणरण-नाउ। जो छिन्दैवि मोहु मुणिन्दु जाउ ॥५॥ धरणउ दसरह धिरु आसु सत्ति। कबुइ पेहोपिश हुम विरचि ॥६॥