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अटासीमो संधि
३०५ रत्नाझने कहा, “धोखा देनेपर दुःख कौन नहीं पाता। हम भी कितने निर्लज्ज, दुष्ट, दुर्जन और अमानी थे, हमारा भी मान अब गल गया। हमलोग लंका जाकर शुभनन विभीषण के दशन किस प्रकार कर सकते हैं।" यह कहकर इन्द्रियों के लिए अभेद्य रतिवेग मुनिके पास जाकर इन्द्रजीत और खरके पुत्रोंने बहुत लोगों के साथ संसारसे विरक्त होकर दीक्षा ग्रहण कर ली॥१-११॥
[४] इस प्रकार शत्रुका भय समाप्त हो जानेपर उन देवोंने सेना समेट ली। अब उन्होंने सोचा कि गुणरूपी रत्नोंके समुद्र रामको सम्बोधित कैसे किया जाय । उन्होंने एक सूत्रा पेड़ बनाया और उसे पानीसे सींचना प्रारम्भ कर दिया । वसन्तका माह आनेपर भी वह वृक्ष विरहीकी भाँति सूखा जा रहा था, वह वृक्ष खोटे राजाकी भौति था, न तो उसमें फल थे, और न छाया । पत्र-पुष्पके परित्याग हो जाने के कारण कंजूसकी भाँति घह काला पड़ गया था | दो बैल उन देवोंने जुएमें जोत दिये, फिर उसमें हल लगा दिया, और शीघ्र ही दूसरे देवने चट्टानपर हल बलाफर बीज बखेर दिये । इस प्रकार वह पत्थरपर कमलके फूलोंका समूह जगाने लगा। कृतान्त यत्र नामका देवता मथानीसे पानी बिलोने लगा। एक ओर जटायु नामका देवता घानीमें रेतको पेरने लगा। इस प्रकार रामने जब ये और दूसरी परस्पर विरोधी अर्थहीन बातें देखीं, तो उन्होंने कहा, "अरे अज्ञानियो ! तुम अपने मन में महान् मूर्ख हो, पुराने बूढ़े पेलको सींच-सींचकर पानी बर्बाद क्यों करते हा ? तुम व्यर्थ श्रम कर रहे हो, चट्टानपर कमल नहीं लग सकता। पानीको मथनेपर भो नवनीत नहीं बनेगा। इसी प्रकार रेत पेरनेसे तेलकी उपलब्धि किस प्रकार होगी तुम्हारा