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________________ अट्ठासीमी संधि प्रयास तो बहुत बड़ा है, परन्तु इच्छित फलकी प्राप्ति कुछ भी नहीं है। यह सुनकर कृतान्तदेवने कहा, "तब तुम भी प्राणों से शून्य इस अवशिष्ट शरीरको क्यों हो रहे हो, बताओ इसमें तुमने कौनसा फल देखा ।। १-१० ।। [4] उसके इन असाधारण वचनोंको सुनकर रामने लक्ष्मणको अंक में भर लिया और कहा, "तुम श्रीके निकेतन कुमार लक्ष्मणकी निन्दा क्यों करते हो, यदि तुम नहीं जानते वो चुप तो रह सकते हो ।" तुम कितना अमंगल और अनिष्ट कहो, इससे तुम्हें दोष ही लगेगा। रामने इतना कहा ही था कि जटायु एक योद्धा के शरीर कन्धेपर उठाकर आया। उसे देखकर भ्रातृ प्रेमसे अन्धे, राज्य विहीन रामने स्नेहके वशीभूत होकर कहा, “तुम किसलिए इस मनुष्यको ढो रहे हो ।" उसने कहा, "मुझसे क्या पूछते, अपने-आपको क्यों नहीं देखते। जिस प्रकार मैं अपने मनमें मूर्ख हूँ उसी प्रकार तुम भी हो, तुम भी शवको कन्वेपर हो रहे हो। तुम्हें अपने समान पाकर तुम्हारे प्रति मेरे मनमें भारी स्नेह उत्पन्न हुआ है। अरे अरे मुझ सहित सभी पिशाचोंके तुम प्रमुख हो, हम दोनों ही महामोहसे उद्भ्रान्त और भूतोंसे प्रसित होकर दुनियामें घूम रहे हैं ॥ १-१० ॥ I [६] इन शब्दोंसे राम बहुत लज्जित हुए और उनका मोह ढीला पड़ गया । सहसा उनकी आँखें खुल गयीं। वे जिन भगवान के शब्दोंपर विचार करने लगे । उन वचनोंको, जो पाप कर्मों का क्षय करते हैं और जो अविचलित शाश्वत सुख देते हैं। मैं नेह के वशीभूत होकर देखो कैसा मूर्ख बना, सब कुछ जानकर भी, मूर्ख जैसा बर्ताव कर रहा हूँ । संसार में धन्य हैं अणरण्ण राज, जो मोहका नाश कर महामुनि बन गये ।
SR No.090357
Book TitlePaumchariu Part 5
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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