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रिम संधि
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[3] उसे देखकर ऐसा लगता था, मानो दुर्मन वह दुःखके समुद्र में डाल दिया गया हो। प्रियके वियोगकी आगमें जैसे वह जल उठा हो । उसके बाल बिखर गये, शरीर अस्त-व्यस्त हो गया, उठता-पड़ता वह नष्ट हो रहा था। ऊँचे हाथ कर, वह दहाड़ मार कर विलाप कर रहा था । आँसुओंसे धरती गीली हो चुकी थी। नूपुर, हार, डोर, सब चन्दन के छिड़काव की कीच में खच गये थे। पीन पयोधरोंके भारसे वह आकान्त श्रा । काजलकै जलमलसे वह मैला हो रहा था । मानो कोयलोंका समूह ही कहीं जा रहा हो, या इथिनियों का समूह ही विखर गया, या मानो, कमलिनियोंका वन ही अपने स्थानसे भ्रष्ट हो गया हो । वा मानो हंसिनीकुल किसी महासरोवरसे छूट गया हो । करुणस्वर में रोता हुआ वह वहाँ आया और एक ही पलमें पूर्वपर न पहुँ। अश् गज और योद्धाओंके खूनसे रँगी हुई युद्धभूमि बिलकुल अच्छी नहीं लग रही थी, ऐसा जान पड़ता था मानो वह लाल वस्त्र पहनकर, रावणके साथ अनुमरण करने जा रही हो ॥१६॥
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[६] अन्तःपुरने जाकर देखा वह महायुद्ध | कितने ही योद्धा मरे पड़े थे, मांस, रक्त, रस और मजासे लथपथ । हड्डियों और धड़ों से भयंकर था वह । उसमें ध्वज और दूसरे चिह्न लोटपोट हो रहे थे। नाचते हुए कुद्ध कबन्धोंसे अस्तव्यस्त और वायस (कौवा), भयंकर गीध और सियारोंसे वह व्याप्त था। कहीं पर चन्द्रमाके समान सफेद छत्र पड़े थे, मानो युद्धके देवताकी पूजाके लिए कमल रखे हुए हों। कहींपर तीरों से क्षत-विक्षत अश्व थे, भानो युद्धके देवता के लिए बलि दी गयी हो। कहीं पर तीरोंने हाथको आकाशमें छेद रखा था, वह ऐसा लगता था, मानो जलधाराओंसे भरे हुए मेघ हों,