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छायासीमो संधि
२७६ फैल गया, मानो काला खप्पर ही रख दिया गया हो। थोड़ासा रास्ता और पार करने के लिए हनुमान अपनी सेनाक साथ सुरदुन्दुभि पर्वत पर जाकर ठहर गया। बैठे बैठे वह काले उजले आकाशको देखने लगा 1 इतने में चन्द्रमासे शून्य सारा विश्व जैसे सो गया। थोड़े ही समयमें उसने देखा कि चमकता हुआ एक भारी तारा आकाशसे टूटकर गिरा है । उससे सब लोगोंकी आँखें चौंधिया गयीं मानो बिजलीकी रेखाएँ ही चमक उठी हो । ग्रह, तारा और नक्षत्रोंके पथको साफ करती हुई वह ऐसी लगी मानो मलयानिलकी ज्वाला हो। थोड़ी ही देरमें अकूत आकारवाला वह तारा शीघ्र ही शान्त हो गया। यह देखकर सुन्दर हनुमान अपने मन में सोचने लगे कि संसारमें इस प्रकार ठहरना सचमुच धिक्कारकी बात है । दुनियामें तिल भर ऐसी पीज नहीं है जिसका विनाश न होता हो ॥१-११।। । [१७] इतने दिनोंसे सचमुच हम मनके मूद हैं, और है आलसी। तभी हम लोगोंकी हालत ऐसी है। चाहे हम बड़ेबड़े पहाड़ोंकी गुफाओं में छिपें, तलवारोंसे रक्षित पिटारीमें बन्द हों, चाहे आकाश में चारों दिशाओं में घूमते फिरें, और चाहे समुद्र और पहाड़ोंमें छिपें, इन सब उपायों के बाद भी मौत पीछा नहीं छोड़ती। इससे अच्छा यही है कि हम परलोकमें चित्त लगायें । यौषन महागजके कानोंके समान चंचल है। जीवन तिनकोंकी नोकपर स्थित जलबिंदु के समान तरल है । बैभव दर्पणकी छायाकी भाँति अस्थिर है। श्री हवासे आहत दीपशिखाकी भाँति है। अर्थ ( धन पैसा ) शरदकालीन मेघोकी छायाकी भाँति अस्थिर है। स्वजन समूह तिनकोंकी अग्नि वालाके समान है। यह शरीर भूसे की मुट्ठीके समान सारहीन