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पंचहत्तरिमो संधि सिंहको और गरुड़से नाग अस्त्रको नष्ट कर दिया। पंचानन ( सिंह ) से उसने गजपर आघात कर दिया। नारायण तीरसे उसने निशाचरको रोक लिया और दिनकर अस्त्रसे अन्धकारको नष्ट कर दिया, बड़वानलसे समुद्रका शोषण कर लिया । ठीक इसी अवसरपर आकाशतलसे आठ सुन्दर कन्याएँ नीचे उतरीं । उनके स्तन ऐरावत के कुम्भस्थल के समान विशाल थे। वं शशिवर्धन नामके विद्याधरको कन्याएँ थी। मालतीमालाके समान उनकी भुजाएँ कोमल थीं। किसीने कहा, "हे लक्ष्मण, सीताके स्वयंवर में दी गयीं ये कुलपुत्रियाँ तुम्हारे लिए हैं । तुम्हारी जय हो, बढ़ो, सफलता तुम्हें वरे।" यह सुन कर लक्ष्मणका दुश्मन रावण बहुत प्रसन्न हुआ। निशाचरराजने अपने मनमें सिद्धार्थ अस्त्रका ध्यान किया और उसे कुमार लक्ष्मणपर छोड़ दिया । उसने भी अपने विविनाशन अस्त्रसे, आकाशमें आते हुए उस अस्त्रको रोक लिया ।। १-१०॥ __ [१६] निशाचरस्वामी रावण जो-जो अस्त्र छोड़ता लक्ष्मण अपने शत-शत तीरोसे उन्हें आधे रास्ते में ही रोक लेता। तब देवताओंको सतानेवाले रावणने अपने मन में बहुरूपिणी विद्याका ध्यान किया। वह एकदम आयी और बोली, "आदेश दीजिय, आदेश दीजिए"! यह सुनकर रावणने अपने मुखसे कहा, "अनेक मन्त्रों और स्तुतियों-स्तोत्रोंसे मैंने आठ दिनों तक तुम्हारी आराधना की है, तुम आज हमारी समस्त कामनाएँ पूरी करो। इस मनुष्यरूपी पहाइपर वन लेकर गिर पड़ो। तुम रावणका रूप धारण कर लो और अपना मायामय रथ ले लो"। यह सुनकर विद्या लक्ष्मणके सम्मुख उछली । उसने भी उसके दो टुकड़े कर दिये । तब विधाने अपनी उत्कृष्ट विद्याका प्रदर्शन किया। शीघ्र ही उसने दो रावण बना दिये ।