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________________ एक्कासी हम संधि १५३ जहाँ निशाचर रोती-बिसूरती मुझे ले गया था। हे आकाश, तुम भी उस समय वहाँ थे कि जब जटायु युद्धमें आहत हुआ था। जब राकेशी मारा गया था. और उसकी विद्या खंडित हो गयी थी । हे धरती, तुम गवाह हो इस बातकी कि किस प्रकार सघन वृक्षोंके अशोक वनमें, मैं अकेली रहती रही। हे वरुण, पवन, आग और सुमेर पर्वत, तुम भी तो थे, परन्तु तुममें से किसीने भी, धर्मका एक अक्षर नहीं कहा। लोगोंके कारण, कठोर रामने मुझे अकारण निर्वासित कर दिया। शीतको धारण करनेवाली मैं यदि कहीं मारी गयी तो मेरी स्त्रीहत्या तुम्हारे ऊपर होगी। सीताके ये शब्द सुनकर, देवलोक चिन्तामें पड़ गया, इसी समय भानो साके बरसे उन्होंने जंधकी भेंट सीतादेवी से करा दी ॥१-१०॥ [१४] थोड़ी देर बाद सुभट श्रेष्ठ और युद्ध में समर्थ राजा वाजंध हाथीपर बैठ वहाँ पहुँचा। उसने सीताको देखा । उसके चरण रक्तकभलके समान सुन्दर थे, नखोंकी किरणों से वह धरतीको आलोकित कर रही थी । उसकी शरीर - कान्तिसे इन्द्राणीको ताप हो रहा था, उसका मुखचन्द्र लोगोंको एक नया आह्लाद देता था। नेत्रोंसे उसने कामदेवीकी वाणीको तिरस्कृत कर दिया था। वज्रजंधने उससे पूछा, "तुम किसकी बेटी और कहाँ की रानी हो !" सीताने प्रत्युत्तर में कहा - " मैं अभागिन लोक अपवादके कारण राम द्वारा अपने स्थानसे च्युत कर दी गयी हूँ, मैं रामकी पत्नी हैं, लक्ष्मण मेरे देवर है। भामण्डल मेरा एकमात्र भाई हैं, जनक मेरे पिता है और विदेही मेरी माँ है। राजा दशरथकी मैं पुत्र वधू हूँ ।" यह सुनकर राजा वाजंघने कहा, "हे आदरणीय, राजा राम और लक्ष्मण मेरे साले हैं। तुम मेरी धर्मकी बहन हो, मैं तुम्हारा
SR No.090357
Book TitlePaumchariu Part 5
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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