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नेत्रासीमो संधि
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इसके अनन्तर, रघुकुल रूपी शाकाशने सूर्य राम मासे उठे। उन्होंने जाकर आसन देखा, परन्तु सीतादेवी वहाँ नहीं थी ।।१-९॥
[१९] वे सब ओर देखते हुए उठे, वे कह रहे थे, "सीता कहाँ हैं, सीता कहाँ है"। तब किसी एकने विनयपूर्वक उन्हें बताया- “यह जो विशाल उद्यान दिखाई देता है, वहाँ शीलसे शोभित सीतादेवीने देवताओंके देखते-देखते एक मुनिश्रेष्टके पास दीक्षा ग्रहण कर ली है।" यह सुनकर, राम सहसा क्रुद्ध हो उठे । मानो युगका क्षय होनेपर कृतान्त ही विरुद्ध हो उठा हो । उनकी आँखें लाल थीं, मुख भौंहोंसे भयंकर था। वह उद्यानके सम्मुख गये। ईर्ष्यासे भरकर वह हाथीपर बैठ गये । वह बहुत-से विद्याधरोंसे घिरे हुए थे । ऊपर चन्द्र के समान धवल आतपत्र था। दायें हाथ में उन्होंने 'सीर' अन ले रखा था। वे अपने अनुचरों से कह रहे थे “जो मैंने माया सुपीवके साथ किया, और जो लक्ष्मणने युद्ध में रावणके साथ किया, वहीं मैं इन्द्र प्रमुख इन घमंडी देवताओंका करूंगा"। रे उस महेन्द्रके नन्दन वनमें पहुँचे । वहाँ केवलज्ञानसे युक्त महामुनिको देखकर उनकी सारी ईर्ष्या काफूर हो गयी। वह महागजसे उतर पड़े । श्रेष्ठ नरों के साथ, दोनों हाथ जोड़कर श्रीरामने प्रदक्षिणा दी और तब नतसिर होकर उन्हें प्रणाम किया ॥१-१२।।
[२०] रामकी ही भाँति लक्ष्मणप्रमुख अनेक राजाओंने आनन्द और उल्लाससे महामुनिकी धन्दना की। फिर रामने सीतादेवीके दर्शन किये, मानो महामुनीन्द्रने त्रिभुवनकी लक्ष्मीको देखा हो। वह चन्द्रमाके समान स्वच्छ वस्त्रोंसे शोभित थीं। धरतीपर बैठी हुई थी, अभी-अभी उन्होंने दीक्षा ग्रहण की