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अट्टासीमो संथि धन्य हैं राजा दशरथ जो द्वारपालकी सनदी देखकर विरक्त हो गये। मरत भी धन्य हैं, जिन्होंने राज्यका परित्याग कर दिया और यौवन में ही परलोकका काम साध लिया । सेनापति कृतान्तवक्त्र धन्य है, जिसने भविष्यको ध्यान में रखकर तत्त्व प्रहण किया । कुगतिके मार्गको ग्रहण करनेवाली सीतादेवी भी धन्य है, उसने कमसे कम इस दशाका अनुभव नहीं किया। महान् हनुमान भी धन्य है जो वह मोह के महान्ध कुएँमें नहीं गिरे। लत्रण, अंकुश और लक्ष्मणके पुत्र भी धन्य हैं, जिन्होंने नवयुवक होकर भी दीक्षा ग्रहण की है। इस समय मैं ही एक ऐसा हूँ जो यौवन बीतने और लक्ष्मण जैसे भाईके मरनेपर भी आत्माके घातपर तुला हुआ हूँ। अपने काममें व्यामोह भला किसे नहीं होता ।।१-१२ ।।
[७] रघुकुल रूपी आकाशके चन्द्र राम, बार-बार अपने मनमें सोचने लगे कि सुन्दर स्त्रियाँ पायी जा सकती हैं, चमरों सहित छत्र भी पाये जा सकते हैं। बन्धु-बान्धव और स्वजन भी खूब मिल सकते हैं, अमित परिमाण धन भी उपलब्ध हो सकता है, हाथी, अश्व और विशाल रथ भी मिल सकते हैं, परन्तु केवलझान की प्राप्ति अत्यन्त कठिन है। यह देखकर कि रामको अब बोध प्राप्त हो गया है, देवताओंने अपनी ऋद्धियोंका प्रदर्शन उनके सम्मुख किया। आकाश, जम्पाण
और विमानोंसे भर गया । सुर-वधुओंका जमघट हो रहा था । सुगन्धित इवा बह रही थी। देवताओंने निवेदन किया, "हे गम, बीते दिनोंके सुखोंकी यादसे क्या ।" यह सुनकर रामने हँसकर कहा, "धिरपुण्यसे विहीन मुझे यहाँ सुख कहाँ, मूर्खके मनमें साधारण सुख भी कहाँ होता है। इस मनुष्य जन्ममें उन्हींकी कुशलता है, जिनकी जिनशासनमें अविचल भक्ति