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एक्कासीइमो मंधि हुई होती है, निधिके समान वह प्रयत्नोंसे संरक्षणीय है। गुड़ और घीको स्वोरकी भांति चड़ किसीको भा देने योग्य नहीं है।" रामने इस प्रकार जब अपने आपको सम्बोधित किया तो उन्हें लगा कि सांता चली जाष, परन्तु प्रजाका विरोध करना ठीक नहीं। सीतादेवी, यद्यपि घोर संकट में भी अपने स्नेहसूबमें बँधी रही है और मेरा मन कहता है कि वह महासती है, फिर भी इस प्रवादको कौन मिटा सकता है कि सोता रावणके घर रही ॥१-१०||
[६] तब जनार्दन एकदम उबल पड़ा, मानो घी पढ़नेसे आग भड़क उठी ही। उसने अपनी पवित्र सूर्ग्रहास तलवार निकाल ली जो बिजलीके बिलास या लपटोंसे चमकती हुई आगके समान थी। उसने कहा, "मैं दुमोका अहंकार चूर-चूर कर दूंगा, जो बुरी बात कहेगा उसके लिए मैं प्रलय हूँ ? महान दुष्ट क्षुद्र खरके साथ मैंने जो कुछ किया और रावणके साथ भयंकर युद्ध में किया वहीं मैं उन दुनोंक साथ करूँगा, जो कुटिल मुजंगोंके समान वक्र अंगवाले हैं, जिसका नाम लेनेसे दुःख नष्ट हो जाता है, देवताओंने जिसके पातिव्रत्यकी घोषणा की, जिसके प्रसादसे यह धरती आश्वस्त है जिसके कारण ही रघुनन्दन सानन्द हैं, उस सीतादेवीकी जो निन्दा करेगा, मैं उसके लिए यमका दूत हूँ। लोग जिसके चरणोंकी धूल की वन्दना करते हैं, उसे कौन कलंक लगाया जा सकता है। महासती सीतादेवीके प्रति जो दुष्ट सन्देह रखता है वह मेरे सामने आकर खड़ा हो,उसका सिर रूपी कमल मैं अपने हाथसे खोट लूँगा" ।। १-१०॥