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अट्टासीमो संधि दें, संसारमें वियोग किसीको भी न हो, परन्तु यम इसी एकके लिए नहीं है, सभी मनुष्योंका बुढ़ापा, जन्म और मरण होता है। जीवको जन्म लेनेमें कोई भ्रान्ति नहीं है, चंचल शरीर उत्पन्न होते हैं, और नष्ट भी। मनुष्यका जन्म जैसा निश्चित है, उसकी प्रमुभ. उFER निम्ति है. इसलिए लक्ष्मणके लिए तुम क्यों रोते हो हे देव, जैसा इसने महाप्रस्थान किया है, वैसा ही एक न एक दिन मेरा आपका भी कूचका डेरा उठेगा। यदि जीवोंकी राशियाँ इस प्रकार आती-जाती न रहें, तो धरतीपर समायें कैसे हे राम, यदि मौत न होती तो बड़ेबड़े कुलधर और तीर्थकर कहाँ गये। भरतप्रमुख बड़े-बड़े चकवर्ती और भी दूसरे रुद्र, कृष्ण और राम कहाँ गये समस्त आगमों में कुशल, यह सब जानते हुए, आप मेरे षचनमें विश्वास करें, आप त्रिलोकगुरु स्वयंभूका ध्यान करें, और दुःखको खोटी स्वीकी तरह दूरसे ही छोड़ दें ॥१-१०॥ स्वयंभूदेवसे किसी प्रकार बचे हुए, और निभुवन स्वयंभू द्वारा रचित पअचरित के शेष मागमें 'रमणमरण' नामक पर्व समाज हुमा । चन्दइके आश्रित, कषिराजके पुत्र त्रिभुवम 'स्वयंभू' द्वारा रचित पप्रचरिसके शेष भागमें, यह ससासोवा सर्ग समाप्त हुआ। अकंला त्रिभुवन स्वयंभू कविराज चक्रवतीस उत्पश्च हुआ, जिसने पमचरितके चूरामणिके समान यह
शेष माग पूरा किया।