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________________ एक्कासीम संधि और दूसरे को उत्तेजित करता है; लोक स्वभाव से ही अपरिपालनीय है, उसका मन विपम होता है, वह हमेशा दूसरोंकी बुराई देखता है, महासर्पकी तरह वह भयंकररूपसे वक्र होता है, महागुणोंसे दूर दूसरोंका बुरा करनेवाला | लोगोंकी कवि यति सकी और राजा अच्छे नहीं लगते, वे उनमें कोई न कोई कलंक अवश्य लगा देते हैं, लोग आग के समान अविनीत, और श्रीमालकी तरह सीय ( ठंड और सीता देवी ) को पसन्द नहीं करते। वे चन्द्रमा के समान केवल दोष प्रहण करते हैं, उसकी तरह नयशील और आकाशके समान शून्य में विचरण करनेवाले तीर फलककी तरह, उनमें लोह ( लोहा और लोभ ) होता है; वे गुणों (गुण और डोरा ) से मुक्त होते हैं, विध्वंसझील और धर्मसे हीन । जनता यदि किसी कारण निरंकुश हो उठे तो वह हाथियों के समूहकी तरह आचरण करती है; जो उसे भोजन और जल देता है, वह उसीको जानसे मार डालती है | ॥१-१२|| 921 [५] या नदी की तरह कुटिल महिलाका कौन विश्वास कर सकता है भले ही दुष्ट महिला मर जाय, पर वह देखती किसो का है और ध्यान करती है किसी दूसरेका पसन्द करती है किसी दूसरेको । उसके मनमें जहर होता है, शब्दों में अमृत और दृष्टिमें यम होता है, स्त्रीके चरितको कौन जानता है, वह महानदी की तरह दोनों' कूलोंको खोद डालती हैं । चन्द्रकलाके समान सबपर देढ़ी नजर रखती हैं, दोष ग्रहण करती है, स्वयं कलंकिनी होती है, नयी बिजली की तरह वह चंचल होती है, गोरस मन्थनकी तरह कालिमासे स्नेह करती है, सेठोंके समान कपट और मान रखती हैं, अटवीके समान आशंकाओंसे भरी
SR No.090357
Book TitlePaumchariu Part 5
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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