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पंचहत्तरिमो संघि फूत्कार ) से गीला था । जिसपर सोनेके घामर हिल-डुल रहे थे, देवता जिसकी स्वेच्छासे सेवा कर रहे थे, जो अप्सराओंकी सौन्दर्यशोभासे सुन्दर था, टन-टन करती हुई घण्टियोसे मुखरित हो रहा था, जो स्वर्णिम किंकणियोंके जालसे अलंकृत था । तरकस, माण, धनुष और डोरोंका संग्रह कर रायण उस रथमें बैठ गया। इसी बीच मन्दोदरीके पिताने क्रुद्ध होकर, अपने तीखे खुरपेसे हनुमान्के रथके टुकड़े-टुकड़े कर दिये, तब हनुमान्ने खोटे पुत्रकी भौति उस रथको छोड़ दिया ।।१-१०॥
[४] निशाचर के खुरपेसे हनुमानका रथ इस प्रकार खण्डित होनेपर जनकपुत्र भामण्डल क्रोधकी ज्वालासे भड़क उठा। मण्डल धर्मपाल भामण्डल भी क्रोधसे अभिभूत होकर रथ बढ़ाकर शत्रुके पास पहुँचा | उसके पास दस हजार अझोहिणी सेना थी। उसमा गादीर सोलर कारके आकारोंमे शोभित था । वह ऐसा लगता था, मानो मनुष्यके रूपमें कामदेव हो। वह श्वेतचमर और श्वेत आतपत्र धारण किये था । निकट पहुँचकर उसने कहा, "हे निशाचर फलंक, तुम रुकोरुको, मुड़ो-मुड़ो और मेरे ऊपर अपना रथ चढ़ाओ ! तुम्हें छोड़कर, धरतीपर दूसरा मनस्वी कौन है ? तुम राषणके ससुर हो, देवताओंके मन्त्री (बृहस्पति) का दमन तुमने किया है। यह कहकर भामण्डलने सूर्यमण्डलके समान शत्रुको घेर लिया। जब मेघोंके समान अपने तीर, जाल और नाना प्रकारके विज्ञान-शानसे निशाचर मयको घेर लिया, तो उसने भी ऋद्ध होकर सैकड़ों तीरोंसे भामण्डलको आहत कर दिया। कवच, छत्र, श्रेष्ठध्वज, सारथि और रथ, सब कुछ युद्धमें ध्वस्त हो गया, अविनीतकी भाँति एक अकेला भामण्डल ही बच सका ? ॥ १-१०॥