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तेासीमो संधि जानता हूँ कि वह किस प्रकार मुझे सुख पहुँचाती रहीं । जानता हूँ कि वह अणुन्नतों, शिक्षाप्रतों' और गुणवतो' को धारण करती हैं। वह सभ्यग्दर्शन आदि रत्नोंसे परिपूर्ण हैं, जानता हूँ कि वह समुद्र के समान गम्भीर हैं, जानता हूँ कि वह मन्दराचल पहाड़की तरह धीर है । जानता हूँ कि लवण और
कस, माँ हैं। सामाजि . राजा बाकी कन्या हैं। जानता हूँ कि वह राजा भामण्डलकी वहिन हैं। जानता हूँ कि वह इस राज्यकी स्वामिनी हैं। जानता हूँ वह अन्तःपुरमें श्रेष्ठ है। जानता हूँ वह किस प्रकार आज्ञा माननेवाली हैं। पर यह बात मैं फिर भी नहीं जानता कि नागरिकजनोंने मिलकर अपने दोनों हाथ ऊँचे कर मेरे घरपर यह कलंक क्यों लगाया
[४] इस अवसरपर रत्नाश्रवके पुत्र राजा विभीपणने निजटाको बुलवाया। उधर इनुमानने भी लंकासुन्दरीको चुलवाया। सीतादेवीके सतीत्वके विषयमें एक आस्थापूर्ण गर्वीले स्वरमें उन्होंने निवेदन करना प्रारम्भ किया, "हे देवदेव, यदि कोई आगको जला सके, यति हवा को पोटलामें बाँध सके, यदि पाताल में आकाश लौटने लग जाये, कालान्तरमें यदि काल भी नष्ट हो जाये, यदि कृतान्तको मौत दबोच ले, यदि अरहन्तका शासन समाप्त हो जाये, सूर्य पश्चिमसे निकलने लग जाये। चाहे मेरुपर्वतपर सागर रहने लग जाये, तो लग जाये । अर्थात् इन सबकी समाप्ति की एक बार सम्भावना की जा सकती है, परन्तु सीताके सतीत्व और शीलमें कलंककी आशा नहीं की जा सकी। यदि इतनेपर भी विश्वास नहीं होता हो, तो हे स्वामी, एक काम कीजिए। तिल, चावल, विष, जल और आग इन