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________________ एकावीरमो मधि उस सुहावने उपवनमें प्रवेश करके उन्होंने 'जय जय' शब्दके साथ पूजा की । रामके समीप सीता देवी उसी प्रकार स्थित थीं जैसे जिनधर्ममें जीवदया प्रतिष्ठित है ॥१-१०॥ [3] ठीक इसी समय फड़क उठी सीता देवीको दुःख उत्पन्न करने वाली दायों आँख ! वह अपने मन में सोचती है कि एक बार पहले जब यह आँख फड़की थी नब इसने हम तानोंका शबसे अनाकान्त अयोध्यासे निर्वासन किया था, और तब विदेशमें देश देश भटकते हुए असह्य दुःख झेलते रह । उसके बाद युद्धका राक्षस हमें निगल ही चुका था कि उसने किसी तरह हमें उगल दिया और हम अपने कुटुम्यसे मिल सके । लेकिन इस समय फिर आँख फड़क रही है, नहीं मालूम क्या होगा? ठीक इसी समय वृनकी डालें अपने हाथ में लेकर प्रजा गज भवनके द्वारपर आयी। उसने कहा, "हे परम परमेश्वर राम, आप रघुकुल रूपी पवित्र आकाशमें चन्द्रमाके समान हैं; फिर भी यदि आप स्वयं इस अपराधका अपने मन में विचार नहीं करते तो यह अयोध्या नगर आपसे निवेदन करना चाहेगा । खोटी स्त्रियाँ खुले आम दूसरे पुरुषोंसे रमण कर रहीं हैं; और पूछने पर उनका उत्तर होता है कि क्या सीता देवी यो तक रावणके घर पर नहीं रहीं और क्या उसने सीता देवीका उपभाग नहीं किया होगा।" ॥१-१०|| [४] प्रजाके इन दुष्ट शब्दोंको सुनकर रामको लगा जैसे मोगरोंकी चोट उनके सिरपर पड़ी हो। उनका मुख कमल मुरझा गया। वह विचारमें पड़ गये नीचा मुख किये, वे धरती देख रहे थे और सोच रहे थे कि दूसरोंकी चिन्ताके बिना संसारमें कोई नहीं जी सकता; आदमी स्वयं नष्ट होता है
SR No.090357
Book TitlePaumchariu Part 5
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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