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पंचहत्तरिमो संधि
गये । इन्द्रने भी पराजय मान ली। रावणके रथमें जुते हुए हाथी चिंघाड़ने लगे। लंका नगरीका परकोटा तड़क कर टूट गया । नेत्रोंके लिए आनन्द देनेवाले सभी प्रासाद ध्वस्त हो गये। किसी-किसीने तो आहत हुए बिना ही अपने प्राण छोड़ दिये । कोई एक योद्धा कह रहा था कि उस कायरने वह सब क्या किया ? लो अब तो मरे, समुद्रको लाँधकर यहाँ रहते हुए भी धरती नहीं है। जय रामके धनुषकी टंकार इतनी प्राणघातक है, तो तब क्या होगा, जब रामके तीर आयेंगे ॥१-१॥
[१०] इतनेमें रावणने अनगिनत तीरोंसे आसमान छा दिया | रामने उन्हें छिन्न-भिन्न कर दिया, और वे तीर उल्टे शत्रुकी सेना पर जा गिरे । स्त्रियों के लिए रमणीय, सुप्रसिद्धनाम और दुश्मनको शक्ति पा लेनेवाले रामने हँसते हुए कहा, "अरे, धनुर्यरसे अपरिचित, और पराधीन, तुम हटो, अपने घर जाओ, किसी दूसरे गुरुसे सीख कर आओ। पहले धनुषका लक्षण समझो कुछ दिनों तक, फिर मुझसे युद्ध करने आना । इसी प्रताप और अपने अन्यायी स्वभावसे तुमने देवताओंसे अपनी सेवा करवायी और सताया है, अथवा चोरों और डकैती करने वालोंके पास कुछ नहीं टिकता। उनका पौरुष गल जाता है, सत्ता क्षीण हो जाती है। उनके शरीर काम नहीं करते।" देवताओंको कंपा देनेवाले और कैलास पर्वतको उठानेवाले, सहस्रकरको पकड़नेवाले, श्रेष्ठ वरुणका वारण करनेवाले, दस सिरवाले, सुरलोकके लिए भयंकर, क्रोधकी ज्वालासे दीप्त, मनमें वधका संकल्प लिये हुए, वह श्यामशरीर रावण ऐसा लगता था मानो प्रलयका मेघ हो। भू-भंगिमासे भयंकर और मन