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[ ६ ] वे तीनों वहाँ पहुँचे जहाँपर पीन और भरे हुए स्तन मण्डला कौशल्या माता थीं। उन्होंने आलिंगन देकर माता के मनको ढाढ़स दिया, और जिनेन्द्र भगवान्की तरह उनका जयजयकार किया। उसने भी उन्हें सुन्दर आशीर्वाद दिया, "जबतक महासमुद्र और पहाड़ हैं, जबतक यह धरती सचराचर जीवोंको धारण करती है, जब तक सुमेरुपर्वत है, जबतक आकाशमें सूर्य और चन्द्रमा हैं, जबतक दिग्गज और ग्रहमण्डल हैं, जबतक देवताओंके साथ इन्द्र हैं, जबतक महानदियाँ प्रवाहशील हैं, जबतक आकाशमें नक्षत्र चमक रहे हैं, तबतक हे पुत्र, तुम राज्यश्रीका भोग करो और सीतादेवीको पटरानी बनाओ, लक्ष्मण त्रिखण्ड धरतीका प्रधान बने, और भरत अयोध्या मण्डलका राजा हो । फिर कैकयी और सुप्रभाका उन तीनोंने इस प्रकार अभिनन्दन किया मानो सुमेरुपर्वतपर जिनप्रतिमाकी इन्द्र और प्रतीन्द्रने वन्दना की हो ॥ १९ ॥
[ ७ ] वहाँ रहते हुए राम और लक्ष्मणके बहुत दिन बीत गये । भरतने बहुत समय तक राज्यलक्ष्मीका उपभोग किया, दोनों ही राज्यतन्त्र को अच्छी तरह समझते थे। तीन शक्तियों और चार विद्याओंको वे जानते थे, पाँच प्रकारके मंत्रोंकी मंत्रणा करते थे । वे षड्गुणोंसे युक्त थे। इस प्रकार उन्होंने बहुत समय तक सप्तगि राज्यका उपभोग किया। उन्हें बारह मंडलोंकी चिन्ता बराबर रहती थी। अठारह तीर्थोंकी रक्षा करते थे। पर एक दिन उन्हें उन्माद हो गया, मानो कमलसमूह हिमसे आहत हो उठा हां। वे सोच रहे थे कि वही रथ हैं, वही गज हैं और वही अरब हैं और वही अनुचर एवं भाई हैं। वही माताएँ हैं वही मैं हूँ पर एक पिताजी दिखाई नहीं देते ।। १-८ ।।
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