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________________ छायापीमो संधि २६५ रूपी समुद्र आठकर्मरूपी जलचरोंसे भयंकर है । इसमें दुर्गतियोंका सीमाहीन सारा जल भरा हुआ है। यह भय, काम, कोध और इन्द्रियोंसे गम्भीर है। मिथ्या वादोंके भयंकर तूफानसे आन्दोलित है। जन्म, मृत्यु और जातियोंके किनारोंसे घिरा हुआ है। तरह-तरह की भयावह व्याधियोंकी तरंगोंसे आकुलव्याकुल है, आवागमनले सैकड़ों आवासे यह भरपुर है। मद मान जैसे बड़े-बड़े पातालगामी छेद इसमें है। खोटे शास्त्र रूपी द्वीपोंके समूह इसमें हैं। महामोह रूपी उत्कट और चंचल फेन इसमें लयालय भरा हुआ है। वियोग और शोकका दावानल इसमें धूं-धूं कर जल रहा है। ऐसे अनन्त संसार समुद्र में मनुष्य जन्म हमने बड़ी कठिनाईसे पाया है। इस समय अत्र इस मनुष्य शरीरसे हम जिन दीक्षा रूपी नावसे उस अजर-अमर देशको जायँगे जहाँ पर यमकी छाया नहीं पड़ती।।१-११।। [११] पुत्रोंके वचन सुनकर लक्ष्मणने बार-बार उनकी ओर देखा, बार-बार उनका मस्तक चूमा और गद्गदस्वरमें कहा, "यह श्री, यह सम्पत्ति, यह राज्य, ये देवांगनाके समान सुन्दर स्त्रियाँ, सुन्दर प्रियजन, अच्छे कुलमें उत्पन्न हुई तुम्हारी ये मातायें, ये सब महादसे महान हैं। सुमेरु पर्वतके स्वर्णशिखरोंके समान, सुहावना यह प्रासाद । यह सब छोड़कर तुम दीक्षा लेकर बनमें कैसे रहोगे? मैं स्वयं तुम्हारे स्नेह सूत्र में बँधा हुआ हूँ। क्या यह सब छोड़ देना ठीक है।" इसपर कुमारोंने प्रति उत्तर में निवेदन किया, "इस प्रकारकी बहुत सी व्यर्थ बातोंके कहनेसे क्या ? हे तात छोड़ो, विघ्न मत बनो । राह कहकर, सबके सब कुमारोंने वेगपूर्वक महेन्द्र ध्वज नन्दन वनके लिए कूच किया और वहाँ जाकर उन सबने महाबल नामक महामुनिके पास दीक्षा ले ली ॥१-१०॥
SR No.090357
Book TitlePaumchariu Part 5
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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