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परमचरिर छाइनई गयणु चान्तपहिं। भखलिय-सर-सहि-भिवान्तपहिं ॥४॥ याएवज पत्तु पहाणेग। रहु खचिउ अदिसिह णम्दोण ।।५।। दिस करिहुँ असेसहुं गलिउ गाउ । काजि मार ॥i मिमन्ति बलर जस्ले जलयरा पि । णहें पट्ट देव थले यजयरा वि ॥७॥ सो ण वि मयत्रह सो गा वि तुरङ्ग । सो ण षि रहबरु तपण वि रहा ॥८॥ सो | वि घाउ तण चि आयवत्तु ! जहिं राम-सरह सउ सउ ण पतु ॥९॥
घता
गप सत्त दिवह जुजान्ताएं तो पछेउ महाहवहीं । लहु लक्षणु अन्तरे देवि रतु विजउ गाई थिउ राहवहीं ॥१०॥
[१३] ॥दुवई।। 'वल मई किकरण किं कीरह जइ तुहुँ धरहि धणुहरं ।
मिसियर-कुल-कियन्सु ह भस्कृमि रावण या रहवरं ॥१॥ दुग्मुह दुचरिय दुराय-राय। तउ राहय-केरा कुछ पाय ।।२॥ बलु उरें कर चुकहि म जियन्तु । बहु-काल पावड घउ कियन्तु' ॥३॥ तो कोष-जलण-मालोलि-जलिउ । 'हणु हणु' भणन्तु लक्खणहाँवलिउ।।। से वासुएव-पश्विासुएव । कुल-धवल धणुन्दर सावळेच ।।पा। गय-गान-सन्दण कसण-देह । जग्णय गाई पहें पलय-मेह ॥१॥ णं सोह महीहर-मत्थयस्थ । गं विश्न-सजमा डअयाचलस्य ।।७।। णं अक्षण-महिहर विणिहू। गंगा-णिहेण थिय काल-दूम !!८!