________________
न सूर्यको गत
मच गयो । सेमर गलने लगे।
मातीठो संधि
९ नगरी और समुद्र जर्जर हो गया था । ऊपर चढ़ते और धरती पर गिरते हुए अस्खलित तीरोंने आसमान ढक लिया। इवाका बहना बन्द था। दशरथनन्दन रामने सूर्यकी गति रोक दी। दिग्गजों के शरीर गलने लगे। समूचे विश्व में खलबली मच गयी । सेनाएँ नष्ट होने लगी। जलके जलचर प्राणी, आकाशके देवता और धरतीके थलचर प्राणी नष्ट होने लगे। ऐसा एक भी गजबर नहीं था, अश्व नहीं था, रथवर और चक्र नहीं था, ऐसा एक भी ध्वज और आतपत्र नहीं था, जिसके रामके तोरोंसे सौ-सौ टुकड़े न हुए हों। इस प्रकार लड़ते हुए उनके सात दिन बीत गये। फिर भी युद्धका अन्त नहीं दीख रहा था। इतने में अपना रथ बीच कर लक्ष्मण इस प्रकार खड़ा हो गया, मानो रामकी विजय ही आकर खड़ी हो गयी हो ॥१-१०॥
[१३] उसने निवेदन किया, "हे राम, यदि आप स्वयं शस्त्र उठाते हैं तो फिर मुझ सेवकका क्या होगा ? मैं निशाघरकुलके लिए साक्षात् यम हूँ ! हे रावण, तुम अपना रथ आगे बढ़ाओ । हे दुर्मुख दुश्चरित, दुराजराज, तुम सचमुच रामके क्रुद्ध पाप हो । आगे बढ़, क्या तू मुझसे जीवित बच सकता है, आज बहुत समयके बाद, यमराज सन्तुष्ट होगा।" यह सुनकर रावण कोधकी ज्वालासे जल उठा ! यह 'मारो-मारो' कहता हुआ दौड़ा। तब लक्ष्मण और रावण, दोनों वासुदेव
और प्रति घासुदेव तैयार हो उठे। दोनोंका ही वंश धवाल था। दोनों ही स्वाभिमानी और धनुर्धारी थे दोनोंके रथोंमें गज
और गरुड़ जुते हुए थे, दोनो श्यामशरीर थे मानो आकाशमें प्रलय मेघ हों। मानो पहाड़की चोटीपर सिंह हों, मानो विन्ध्याचल और उच्च्याचल पहाड़ हों, मानो अजनगिरिके