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असीम संधि
[८] महाराजोंको उन्होंने प्रेरित कर दिया । भ्रमरमाला उनपर गूँज रही थी। वे प्रलयाग्निके समूह के समान दुःसह थे, पहाड़ के समान विशालकाय थे, मेघोंके समान गरज रहे थे, शत्रुको जीतनेवाले, वे झूल से सज्जित थे । मदसे उनके गंडस्थल गीले थे । वे अपनी पूँछ हिला-डुला रहे थे। सूँड़ोंसे उन्होंने आसमान को छू लिया था। उन्होंने केक रचना-सी कर दी थी । गरजते हुए अजेय वे पहुँचे । झन झनकी गीत-ध्वनि गूँज रही थी। तीखे तीरोंसे वे आहत हो रहे थे, घण्टोंकी दन-दन आवाज हो रही थी। दाँतोंसे उन्होंने दिशाओंको विदीर्ण कर दिया था। दाँत, पैर और हाथ, उनके अस्त्र थे ||८|| इतने में कृतान्तवक्त्र सेनापतिने युद्ध में शक्तिसे शत्रुको ऐसा आहत कर दिया, मानो रातने सूर्यको अस्तकालीन पतन दिखाया हो ॥ १ ॥
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[९] लवणमहार्णवके इस प्रकार युद्धमें मारे जानेपर, राजा मधु कुद्ध हो उठा। वह महारथमें बैठ गया, अश्व जोत दिये गये । सफेद स्वच्छ पताका फहरा रही थी । दुर्दम राजाओं का दमन करनेवाले अनन्त अस्त्रोंसे रथ भर दिया गया। रणकी भेरी बज उठी। आवेशसे भरा हुआ राजा मधु के साथ कृतान्तवक्त्र से जा भिड़ा। उसने कहा, "मेरे बेटेको जिस प्रकार तुमने युद्ध में आहत किया है, आओ अब वैसे ही मुझपर प्रहार करो, अपना दिल मजबूत रखो।" ठीक इसी अवसरपर वशरथनन्दन शत्रुघ्न अपना धनुष लेकर दोनोंके बीचमें आकर खड़ा हो गया । कुपित मन, उन दोनोंमें जमकर लड़ाई होने लगी, मानो दोनों ही इन्द्र और दशवदन हों, मानो धरती के लिए भरत और बाहुबलिमें लड़ाई हो रही हो ।
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