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________________ ३५१ एक्कासीहमी संधि कर, वह इस प्रकार सेवा करता है कि वह सन्तुष्ट हो जाय । महान् सीतादेवीको प्रणाम कर, सारथिने फिर कहा, "सेवामें जीनेके लिए सिर बेचना पड़ता है, सुखके लिए, आदमी प्रतिदिन सेवा करता है, परन्तु उसे उसमे एक भी सुख नही मिलता" ।।१-१०॥ [१२] यह कहकर उसने रथ लौटा लिया। सूतने अब अयोध्याके लिए प्रस्थान किया । बार-बार उसने कहा, "हे माँ, मैं जाऊँ, मुझे इतना ही आदेश दिया गया है । सीतादेवी वनमें इस प्रकार छोड़ा जाना सहन नहीं कर सकी। उस समय, उसे भूछी आती और चली जाती। वह जोर-जोरसे रो पड़ो "मुझ पापिनने पिछले जन्ममें कोई भयंकर पाप किया है, शायद मैंने किसी सारसकी जोड़ीका विछोह किया होगा अथवा चक्रवाकके जोड़ेको वियुक्त किया है। जन्मसे ही मैं दुखोंका पात्र बनवी आ रही हूँ। हे भामण्डल, हे नारायण, हे शत्रुभन, हे माँ, हे पिता! कोई भी तो दिखाई नहीं देता। हे इतभाग्य, मैंने किसका वियोग किया था कि जिससे मुझे शिव, शृगाल और सिंह घेरे हुए हैं। हे इतभाग्य, तुम मुझपर अप्रसन्न क्यों हो, जिससे राम मुझसे इतने रूठे हुए हैं। तिनकेकी शिखा (नोक) बन जाना अच्छा, वनमें लता हो जाना अच्छा, लोगोंके लिए प्राणोंसे प्यारी चट्टान बन जाना अच्छा, परन्तु कोई स्त्री, मेरे समान अभाग्य, निराशा और दुख की पात्र न बने ।।१-१०॥ [१३] जल, स्थल, वन, सृण और यह संसार मुझे इस समय विचित्र दिखाई दे रहा है, मैं जो कुछ भी देखती हूँ, लगता है जैसे वह जल रहा है। हे धरती का विचार करनेवाले सूर्य, तुम देखो और विचारो, क्या मैंने कभी अपने मनसे रावणको चाहा है ? हे वनस्पतियो, तुम सब भी उस समय वहाँ थीं,
SR No.090357
Book TitlePaumchariu Part 5
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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