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ससासीमो संघि प्रभातमें जैसे चन्द्रकी कान्ति होती है, वैसी ही कान्ति लक्ष्मण की थी। एकदम अचल शोभा और कान्तिसे शून्य ! रामने अपने मनमें सोचा, "युद्धमें असाध्य लक्ष्मद, शायद मुझसे नाराज है। यही कारण है कि वह अपनेको भी नहीं समझ पा रहा है ! यहाँ तक कि उठकर खड़ा नहीं हुआ।' फिर मुख चूमकर उन्होंने कहा, 'हे सुन्दरनेत्र, क्या आज तुम मुझसे बात नहीं करोगे, घताओ आज इतने कठोर क्यों हो, लक्षणोंसे तो यही लगता है कि तुम मर गये!" फिर उन्होंने सारा शरीर देखा, और एक ही पलमें राम मूर्छित हो गये । जिस प्रकार जड़से कटा पेड़ धरतीपर गिर जाता है, उसी प्रकार राम अचेत होकर गिर पड़े। हवा, हार, नीर और चन्दनजलके छिड़कावसे उन्हें बड़ी कठिनाईसे होश आया! ॥१-२॥
[१०] शोकसे व्याकुल राम उठे । उनके दीन चेहरेपर आँसू की बूंदें झलक रही थीं। रामका यह भाव देखकर लक्ष्मणका नूपुर सहित अन्तःपुर जोर-जोरसे रोने लगा। "हे स्वामी, स्वयं राम आये हुए हैं, क्या तुम सिंहासनसे नहीं उतरोगे?हा! दरबार में आये हुए सैकड़ों नरश्रेष्ठोंका सम्मान करिए। हे स्वामी, आप प्रसन्न चित्त हो रोती हुई अपनी पत्नियोंको सहारा दें।" इसी बीचमें सुप्रभा, सुमित्रा और अपराजिता, तीनों माताएँ आ गयीं । "हे बेटा लक्ष्मण !'' कहती हुई वे अपनी छाती पीट रही थी। आधे पज़में शत्रुघ्न आ गया और विमन होकर लक्ष्मणके चरणोंपर गिर पड़ा। उसने कहा, "हे भाई, झोकाकुल अपनी भाँको तो समझाओ। तुम्हारे बिना आज हमारे लिए सारी दिशाएँ सूनी दिखाई देती हैं !' ॥१-२॥