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अट्ठासीमो संधि विरक्ति हो गयी। आपने उस समय मुझसे कहा था, "अवसर आनेपर मुझे सम्बोधित करना, इस प्रकार गेा सायर' करना। मैं वही हूँ जिसने घोर तपस्या कर, महेन्द्र स्वर्गमें एक देवरूपमें जन्म लिया । अवधिनानसे मैंने जान लिया था कि लक्ष्मणकी मृत्यु हो गयी है, और दूसरे यह कि शत्रुगण उद्धत हो उठा है। इसीलिए यहाँ आया हूँ, अब मुझे आदेश दीजिए मैं क्या करूँ, मैं हर तरहसे आपका उपकार करना चाहता हूँ।" यह वचन सुनकर रामने कहा, "मुझे बोध मिल गया है और शत्रु सेना भी नष्ट हो गयी है। आपने ऋद्धियोंके साथ दर्शन दिये, जो इससे भी प्रभावित नहीं होता, मधुसे उसका क्या ?" इन वचनोंसे वे अपने मनमें सन्तुष्ट हो गये । दोनों देवता एक क्षणमें अपने-अपने स्वर्गमें चले गये। इस प्रकार धीरे-धीरे शोकका परिहार कर रामने आठवें वासुदेव लक्ष्मणको धीरेधीरे अपने फन्धोंसे उतारा और सरयू नदीके किनारे उनका दाह-संस्कार कर दिया ॥१-१४॥
[१०] इस प्रकार मधुसंहारक भाई लक्ष्मणका अपने हाथों संस्कार कर रामने शत्रुध्नसे कहा, "लो भाई, अब तुम राज्य करो, रघुकुलश्री रूपी नववधूको तुम अपने हाथमें लो। मैं अब सब परिग्रहका त्याग कर तप स्वीकार करूँगा और तपोवनमें प्रवेश करूंगा।" यह सुनकर मथुराके राजा शत्रनने कहा, "जो आपकी स्थिति है, वही मेरी है।" उसके निश्चयको पका जानकर रामने लवणके पुत्रसे इस बारेमें बात की । उसके सिरपर राजपट्ट बाँधकर सहसा राज्यभार उसको सौंप दिया। चार गतियोरूपी रातको नष्ट करनेकाले, सुव्रत' नामक चारण ऋषिके पास जाकर मोह दूरकर गुणभरित और प्रबुद्ध