________________
एक्कूणासीमो संधि
११५ जय भरतने इस प्रकार चंचल चूड़ियों और सुन्दर नूपुरोंसे मुखरित अन्तःपुरकी उपेक्षा की तो रामने आदेश दिया कि जिस प्रकार सम्भव हो उसे रोको ।। १-९॥ __ [१०] जब गुणोंसे युक्त, जानकी प्रमुख श्रेष्ठ नारियोंको यह आदेश दिया गया, तो वे भरतके पास पहुँचौं । उन्होंने अपने नखमणिकी किरणोंसे आकाशको पीड़ित कर रखा था। उनके कटितटमें जैसे कामदेवका निवास था। स्तनोंसे उन्होंने, बड़ेबड़े योद्धाओंको परास्त कर दिया था। रूपमें सुरवधुओंकी शोभा उनके सामने फनी की समस्त कलाकामिन थी। मुखपवनसे वे भ्रमरोंको उड़ा रही थी। भौह धनुष श्री और नेत्र तीर थे। केश रचना में वे देवताओं को भी जीत लेती थीं। उन्होंने कामदेवके भी सौभाग्यको भ्रममें डाल दिया था। उनके सौन्दर्य के जलसे नगरमार्ग पूरित थे। इस प्रकार कल्याणमाला, वनमाला, गुणवती, गुणमहार्य, गुणमाला, शल्या, विशल्या और संता, वनकर्ण और सिंहोदरकी पुत्रिची वहाँ गयीं । उन्होंने नराधिप भरतसे कहा, "हे देवर, सरोवरमें तैरते-तैरते चलो, कुछ समयके लिए जल क्रीड़ा करें ।।१-२॥ । [११] उनकी बात मानकर भरतने महासरोवरमें प्रवेश किया। किन्तु वह जलक्रीड़ामें भी अचल था । सुन्दरियोंने उसे चारों ओरसे घेर लिया, प्रगाढ़ आलिंगन, चुम्बन और हाससे वे उसे रिहा रही थीं। हेला, हाव-भाव और विन्याससे किलकिंचित् विच्छित्ति और विलाससे, मोट्टाविय और कोमिय
आदि विकारोंसे, विभ्रम वरवियोक आदि प्रकारोंसे, उसे रिझाया । परन्तु फिर भी भरत क्षुब्ध नहीं हुए। वे अविचल भावसे इस प्रकार षठ खड़े हुए, मानो सुमेरु पर्वत ही उठ खड़ा हुआ हो । शुभदर्शन भरत तौरपर बैठे हुए थे। इतने में