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________________ पवहमो संधि २५० [४] इतनेमें वर्षाऋतु रूपी सिंह आ पहुँचा जो घन-धन शब्दसे घोर गर्जन कर रहा था। इन्द्रधनुषरूपी उसकी लम्बी पूँछ थी। उड़ते हुए बगुलोकी कतार उसकी दादीके समान लगती श्री. निरन्तर हो रही जलधारा उसकी अयाल थी। उसने सूर्यातपके मृगको दूरसे ही भगा दिया था । ग्रीष्मरूपी महागज को उसने कभीका परास्त कर दिया था। मेढक और मयूरोंकी ध्वनियोंसे वह गूंज रहा था, खिले हुए नीमके पेड़ उसके नखों. के समान थे, जलसे भरी हुई नदियों के प्रवाह उसके पैर थे। वापी, तालाब और सरोवर समूह उसके घाव थे । विस्तृत सरोवर, उसका चौड़ा मुख था। और पार करने में अत्यन्त कठिन खडे उसके विशाल नेत्र थे। इस प्रकार वर्षा ऋतुको अत्यन्त समीप देख कर, वे तीनों उस विकट महावनमें एक लम्बे-चौड़े वट पेड़के नीचे, योग साध कर बैठ गये ।।१-८ [५] उसी अवसर पर श्रीमालिनीका पति आकाशमार्गसे अयोध्या जा रहा था। जनकके विख्यात और विनीत स्वभाववाले पुत्रने जब यह देखा तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ कि कहाँ तो ये सुन्दर महामुनि और कहाँ यह बालुका समुद्र ! कहाँ संसारपथ और कहाँ आदरणीय सिद्ध ! कहाँ अकुशल जन और कहाँ गुणश्रेष्ठ जन ! कहाँ देश और कहाँ उत्तम निधियाँ और रत्न ! कहाँ दुर्जन और कहाँ सुन्दर वचन ! कहाँ दुर्गधसे भरा वन और कहाँ मधुकर! कहाँ नरककी धरती और देवश्रेष्ठ ! कहाँ दूरभव्य जीव और कहाँ तप धरित व्रत और दर्शनसे सम्पन्न ये प्रधान महामुनि ! अथवा लगता है, यह वर्षाकाल मुझे पुण्योदयसे ही प्राप्त हुआ है। अपने मनमें यह सोचकर भामण्डलने बिलकुल ही पासमें पियाके पलवृतेपर प्रदेश सहित एक माषामय विशाल नगर बना दिया |
SR No.090357
Book TitlePaumchariu Part 5
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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