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छसत्तरिमो संधि अय कौन बहुरूपिणी विद्याको प्रहण करेगा! हे स्वामी, आपके न रहनेपर, अव कौन पुष्पकविमानमें चढ़ाकर वन्दनाभक्तिके लिए, सुमेरुपर्वतके जिनमन्दिरोंके लिए मुझे ले जायेगा!" ॥१-१०||
[१०] विद्याधरी मन्दोदरी बार-यार करुण क्रन्दन कर रही थी । वह कह रही थी-"मुझे पारिजातकी वह मंजरी याद आ रही है जो तुमने नन्दन वनमें मुझे दी थी, याद आता है वह समय मुझे जबकि तुम स्नानामिका में मेरे पानपः. सात थे, और धीरे-धीरे मेरा आलिंगन करते थे | याद करती हूँ जब शयन भवन में तुम अपने नखोंसे मुझे क्षत-विक्षत कर देते थे। याद आता है, आपका उस लीलाकमलसे मुझे प्रताड़ित करना। मुझे याद आ रही है कि जब मैं प्रणयकोपमें बैठी होती, तब तुम अपने हाथों मुझे करधनी पहनाते और मैं पागल हो उठती। मुझे याद आता है कि तुमने दानवोंको चौंका देनेवाला नागराजका चूड़ामणि मुझे लाकर दिया था। हे स्वामी, मैं याद करती हूँ कुमारके मयूरपंखका कर्णफूल | मुझे याद है कि ऐरावतके गन्ध जलकी तरह श्यामल तुमने मेरे हारमें मोती लगाया था। हे प्रिय, मैं याद करती हूँ सुरतिसमारम्भकाल में नू पुरोंकी स्वरलहरियोंका लीलाविलास, फिर भी मेरा यह बच्चका बना हुआ निराश हुनय टूटकर टुकड़े-टुकड़े नहीं होता! ।। १-२॥
[१] मन्दोदरी बार-बार कह रही थी, "हे आदरणीय उरें, तुम कितना और सोओगे ! जानती हूँ कि तुम गहरी नींदमें सो गये हो। फिर भी धरतीपर सोते हुए तुम शोभित नहीं होते । हे स्वामी, हमारा क्या अपराध है, मैं हजार बार सीतादेवीकी दूती अनकर गयी। फिर आप मुझपर अकारण अप्रसन्न हैं, जो आप मुझसे इस प्रकार विमुख हो गये हैं !” उस करुण प्रसंग