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सुग्गीषों जेण सु-दिग्ण तार 1 संपवर सरासणुस सह लेवि । रहु खण्डित मी सुपुण ताव ।
उ सारहि आह वर सुरङ्ग । पर्माणि अणकुलवणेण रामु । तो वावरु सम्व-परक्कमेण ।
वण विलक्खीयऍण बलैषि पीबी लग्ग करें
जिह मुक्कु ण कह कोइ वाणु | तिह मुसल गयाणि विह रहनु । लक्खणु षि ताव मणकुण । अमलद पहरणु जं जं जं जें । धणु पाहि पादि भायवन्तु । गणणे तो वोलन्ति देव । हा गड सुरवर पठर-बिन्दु । स्वर - दूसणु लम्बु कुमारु जो वि ।
जगु
जें विरत हरि-वह हु महियलु पायाळगलु
पउमचरि
राज्य मस्तु वः॥२॥ फिर विधाइ परिओसिय सुर समरेश माव णं पारावार हिय तरङ्ग ॥६॥
करेवि ||४||
'तुहुँ जइ उवासँग हुबड खामु ||७|| जिय मिसियर एन जि विक्रमेण ॥ ८ ॥
घन्त्ता
सर-धोरण मुक्क कुमारहों । णं कुछ बहु नियमत्तारही ||१||
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सिंह हन्तु सिह मोग्गरु तिह किवाणु ॥13 तिह अव चि पहरणु र अहङ्गु ||२|| vi रुक्षु महा-गड अङ्कुसेग ||३|| लवणाणु छिन्दइ सं जं तं ॐ ॥ ४॥ हय हयवर सारहि धरणि पसु ॥ ४५॥ 'जिन बाले हिं लक्षण- राम केष' ।। ६ ।। 'हर के विनिसियन्तुि ॥७॥ अण्णेण जिकेण बि पिइड सो वि' ॥ ८ ॥
घन्ता
सिसु-लाइस-पवणुवूड । सलु विकवणङ्कुसिअह
॥९॥