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छायासीमो संधि
२६. [१२] यहाँपर भामण्डल भी निर्द्वन्द्व राज्य कर रहा था । वैभवमें उसने इन्द्रको मात दे दी थी। वह रथनू पुर नगरका स्वामी था। उसने समस्त शत्रुराजाओको जड़से उखाड़ दिया था । कामिनियों के मुख-कमलोंके लिए वह मधुकर था । एक से एक उत्तम भोग भोगने में वह डूबा रहता। सुमेरु पर्वतकी सुन्दर घाटियों में वह विचरण किया करता, मुग्ध अंगनाओंको वह पल भरके लिए भी अपने पाशसे मुक्त नहीं करता। उसकी पत्नी श्रीमालिनी हमेशा उसके अंगमें रहती, मदमाते गजको भौति उन्मत्त रहता, एक-एक अंग आभूषणोंसे विभूषित रहता । इस प्रकार यह देवताओंकी क्रीड़ाका आनन्द ले रहा था, कि एक दिन मयूरकुल में कोलाहल उत्पन्न कर देनेवाली वर्षा ऋतु आ पहुँची। आकाश काले, चिकने, सघन मेघोंसे ढंक गया । सूर्य ओझल हो उठा। इन्द्रधनुषकी रंगीनी फैल गयी। गहरी और तीव्र जलधारा अनवरत रूपसे बरस रही थी । चंचल बिजलियों से दिशाओंका अन्धकार दूना हो उठता था। उस समय भामण्डल अपने प्रासादकी सातवीं अटारीपर बैठा हुआ था। अचानक उसके मस्तकपर तड़ककर ऐसी बिजली गिरी मानो शैल शिखरपर इन्द्रका वन्न आ पड़ा हो ।।१-१०||
[१३] मस्तक पर बिजली गिरनेसे जनकपुन भामंडल के प्राण-पखेरू उड़ गये। यह खबर तुरन्त राम-लक्ष्मणके पास पहुँची। किसीने जाकर कहा, "भामंडलको महाकालने समान कर दिया।" यह सुनकर उन्होंने कहा, "लो सैकड़ों युद्धों में समर्थ हमारा दायाँ हाथ हो नष्ट हो गया है।" शत्रुघ्न सहित, लवण और अंकुशा यह सुनकर शोकसे अभिभूत हो उठे। उन्होंने कहा, ''गुण रत्नोंकी खान, हे मामा, तुम कहाँ चले गये, महाअभिमानी, हमें छोड़कर कहाँ चल दिये । इस समय